ज्ञानेश्वरी पृ. 111

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥23॥

वह चाहे शरीरधारी ही हो, पर फिर भी केवल चैतन्यरूप ही रहता है। वह परब्रह्म की कसौटी पर खरा उतरता है। ऐसा मनुष्य यदि कुतूहल से यज्ञादिक कर्म करे भी, तो भी वे सब उसके आत्मस्वरूप में ही विलीन हो जाते हैं। जैसे बेवक्त आने वाले निर्जल मेघ आकाश में चतुर्दिक् छा जाने पर भी वर्षा नहीं करते, बल्कि अपने-आप ही आकाश में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ऐसे मनुष्य के किये हुए यज्ञादिक कर्म भी उसके ऐक्यभाव में एकाकार हो जाते हैं।[1]


ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥

इसका कारण यही है कि उसकी बुद्धि में ऐसा कोई भेदभाव होता ही नहीं कि यह हवन है, यह होता है, यह यज्ञ का भोक्ता है, इत्यादि। यज्ञकर्ता, यज्ञ, याजन, आहुति और मन्त्र इत्यादि सबको वह अविनाशी आत्मस्वरूप ही समझता है; यह सब कुछ ब्रह्म ही है, इस प्रकार के बुद्धि से देखता है। इसलिये हे धनुर्धर! जिसकी ऐसी समबुद्धि हो गयी है कि ‘कर्म’ का अर्थ ही ‘ब्रह्म’ है, उसके लिये कर्म करना भी निष्कर्म होने के ही सदृश है अर्थात् उसने कर्म किये तो भी वो निष्कर्म ही है। इसलिये जो लोग अविवेकरूपी बाल्यावस्था को पार करके विरक्ति से विवाह कर लेते हैं और तब योगरूपी अग्निहोत्र प्रारम्भ कर देते हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (115-118)
  2. (119-122)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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