श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
वह चाहे शरीरधारी ही हो, पर फिर भी केवल चैतन्यरूप ही रहता है। वह परब्रह्म की कसौटी पर खरा उतरता है। ऐसा मनुष्य यदि कुतूहल से यज्ञादिक कर्म करे भी, तो भी वे सब उसके आत्मस्वरूप में ही विलीन हो जाते हैं। जैसे बेवक्त आने वाले निर्जल मेघ आकाश में चतुर्दिक् छा जाने पर भी वर्षा नहीं करते, बल्कि अपने-आप ही आकाश में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ऐसे मनुष्य के किये हुए यज्ञादिक कर्म भी उसके ऐक्यभाव में एकाकार हो जाते हैं।[1]
इसका कारण यही है कि उसकी बुद्धि में ऐसा कोई भेदभाव होता ही नहीं कि यह हवन है, यह होता है, यह यज्ञ का भोक्ता है, इत्यादि। यज्ञकर्ता, यज्ञ, याजन, आहुति और मन्त्र इत्यादि सबको वह अविनाशी आत्मस्वरूप ही समझता है; यह सब कुछ ब्रह्म ही है, इस प्रकार के बुद्धि से देखता है। इसलिये हे धनुर्धर! जिसकी ऐसी समबुद्धि हो गयी है कि ‘कर्म’ का अर्थ ही ‘ब्रह्म’ है, उसके लिये कर्म करना भी निष्कर्म होने के ही सदृश है अर्थात् उसने कर्म किये तो भी वो निष्कर्म ही है। इसलिये जो लोग अविवेकरूपी बाल्यावस्था को पार करके विरक्ति से विवाह कर लेते हैं और तब योगरूपी अग्निहोत्र प्रारम्भ कर देते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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