श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
कर्म क्या है और अकर्म के लक्षण क्या हैं, इस बात का विचार करते-करते बुद्धिमान् लोग भी चकरा गये हैं। जैसे नकली सिक्के देखने में असली सिक्कों की ही भाँति प्रतीत होते हैं और परीक्षक को भी भ्रमित कर देते हैं, वैसे ही इस प्रकार के उद्भट महापुरुषों के कर्म भी, जो संकल्प मात्र से एक दूसरी ही सृष्टि तक का सृजन कर सकते हैं, निष्कामता की झूठी परिकल्पना के चक्कर में पड़कर अन्ततः सकाम ही सिद्ध हुए हैं अर्थात् इस भ्रम के कारण कर्मबन्धनरूप पाश में जकड़े जाते हैं। इस विषय में विचार करते समय जब बड़े-बड़े ज्ञानिजन भी धोखा खा गये हैं अर्थात् मूढ़ बने हैं तो फिर मूर्खों की बात ही क्या है? इसलिये मैं यह विषय स्पष्ट रूप से तुम्हें बतलाता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो।[1]
जिसके द्वारा सहज में ही इस विश्व की सृष्टि होती है, उसी को ‘कर्म’ कहना चाहिये। सर्वप्रथम वह सहज कर्म अच्छी तरह से जान लेना चाहिये फिर ठीक तरह से यह भी जान लेना चाहिये कि शास्त्रों में बतलाये हुए वे कौन-से ‘विहित कर्म’ हैं जो हमारे वर्णाश्रम के लिये बहुत ही उपयुक्त कहे गये हैं और उनका उपयोग क्या है? फिर जिन कर्मों को निषिद्ध कर्म कहा गया है, उन सब कर्मों के भी स्वरूप को भली-भाँति समझ लेना चाहिये। इतना करने से इसका फल यह होगा कि हम भ्रम से अपने-आपको बचा लेंगे इसमें हम कर्मबन्धन से मुक्त हो जायँगे। वास्तव में यह सारा संसार कर्म के अधीन है और इसकी व्याप्ति अत्यन्त ही गहन है; परन्तु हे अर्जुन! यह रहने दो अब कृतकृत्य पुरुष के लक्षण सुनो।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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