ज्ञानेश्वरी पृ. 106

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥13॥

इसी प्रकार अब तुम यह भी जान लो कि मनुष्यलोक में जो ये चारों वर्ण दृष्टिगोचर होते हैं वे भी मैंने ही गुणों और कर्मों के विभागों के अनुसार उत्पन्न किये हैं; क्योंकि कर्मों के आचरण का विचार प्रकृति (माया) के ही आश्रय से और गुणों के ही मिश्रण से हुआ है। हे धनुर्धर! ये सब मनुष्य मूलरूप से एक ही वर्ण के हैं; पर गुण तथा कर्म की नीति के अनुसार चार वर्णों में बाँटे गये हैं। इसलिये हे पार्थ! मैं कहता हूँ कि इस वर्णभेद की संस्था का मैं कर्ता नहीं हूँ।[1]


न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥14॥

जो इस तत्त्व को ठीक तरह से समझ लेता है कि ये सब (वर्ण-विभाग) मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, पर फिर भी मैंने इन्हें नहीं बनाया है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।[2]


एवं ज्ञात्वा कृतं पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् ॥15॥

हे धनुर्धर! जो मुमुक्षुजन अब तक हुए हैं, उन सब लोगों ने मेरे इस मूलस्वरूप को अच्छी तरह से जानकर समस्त कर्मों को किया है। पर जैसे भूना हुआ बीज बोने से कभी अंकुरित नहीं होता, वैसे ही उनके वे कामनारहित कर्म उनके लिये मोक्ष देने वाले हुए हैं। हे अर्जुन! इन विषयों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य एक और बात है कि कर्म और अकर्म का विचार बुद्धिमान मनुष्यों को भी अपनी बुद्धि के अनुसार करने में आयेगा ऐसी बात नहीं है।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (77-80)
  2. (81)
  3. (82-84)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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