ज्ञानेश्वरी पृ. 103

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥7॥

क्योंकि शुरू से ही यह एक स्वाभाविक क्रम चला आता है कि हर एक युग में धर्म की रक्षा मैं ही करता हूँ। इसलिये जिस-जिस समय अधर्म धर्म को दबोच लेता है, उस-उस समय मैं अपना जन्मरहितत्त्व एक तरफ रख देता हूँ और अपने अमूर्तत्त्व को भी भुला बैठता हूँ।[1]


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥8॥

उस समय मैं धर्म का पक्ष लेकर साकाररूप से अवतार लेता हूँ और तब अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश कर डालता हूँ। मैं अधर्म की सत्ता को उखाड़ फेंकता हूँ, दोषों का नामो-निशान तक मिटा देता हूँ और साधुजनों के हाथों से सुख की पताका फहरवाता हूँ। दैत्यों के कुलों का विनाश करता हूँ, साधुओं की मान-मर्यादा बढ़ाता हूँ और धर्म तथा नीति को एक साथ मिलाकर उनका सम्बन्ध भी स्थापित करा देता हूँ। मैं अविवेकरूपी कालिमा को नष्ट करके विवेकरूपी दीपक को उज्ज्वल करता हूँ जिससे योगिजनों के लिये वह समय दीपोत्सव के सदृश हो जाता है, यानी दीपावली के समान प्रकाशमय आनन्द देता हूँ। उस समय सारा संसार आत्मसुख से सराबोर हो जाता है, संसार में चारों ओर धर्म का ही बोलबाला रहता है और भक्त सात्त्विक भावों से ओत-प्रोत होकर फूल जाते हैं।

हे पाण्डुपुत्र! जब मैं साकार होकर अवतार लेता हूँ, तब पापों के पहाड़ विनष्ट हो जाते हैं और पुण्य का सबेरा हो जाता है। ऐसे कार्यों के लिये मैं हर एक युग में अवतार धारण करता हूँ और जिसे इस रहस्य का ज्ञान हो जाय जो इस तत्त्व को पहचान जाय, उसी को इस संसार में विवेकशील जानना चाहिये।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (49-50)
  2. (51-57)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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