श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
क्योंकि शुरू से ही यह एक स्वाभाविक क्रम चला आता है कि हर एक युग में धर्म की रक्षा मैं ही करता हूँ। इसलिये जिस-जिस समय अधर्म धर्म को दबोच लेता है, उस-उस समय मैं अपना जन्मरहितत्त्व एक तरफ रख देता हूँ और अपने अमूर्तत्त्व को भी भुला बैठता हूँ।[1]
उस समय मैं धर्म का पक्ष लेकर साकाररूप से अवतार लेता हूँ और तब अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश कर डालता हूँ। मैं अधर्म की सत्ता को उखाड़ फेंकता हूँ, दोषों का नामो-निशान तक मिटा देता हूँ और साधुजनों के हाथों से सुख की पताका फहरवाता हूँ। दैत्यों के कुलों का विनाश करता हूँ, साधुओं की मान-मर्यादा बढ़ाता हूँ और धर्म तथा नीति को एक साथ मिलाकर उनका सम्बन्ध भी स्थापित करा देता हूँ। मैं अविवेकरूपी कालिमा को नष्ट करके विवेकरूपी दीपक को उज्ज्वल करता हूँ जिससे योगिजनों के लिये वह समय दीपोत्सव के सदृश हो जाता है, यानी दीपावली के समान प्रकाशमय आनन्द देता हूँ। उस समय सारा संसार आत्मसुख से सराबोर हो जाता है, संसार में चारों ओर धर्म का ही बोलबाला रहता है और भक्त सात्त्विक भावों से ओत-प्रोत होकर फूल जाते हैं। हे पाण्डुपुत्र! जब मैं साकार होकर अवतार लेता हूँ, तब पापों के पहाड़ विनष्ट हो जाते हैं और पुण्य का सबेरा हो जाता है। ऐसे कार्यों के लिये मैं हर एक युग में अवतार धारण करता हूँ और जिसे इस रहस्य का ज्ञान हो जाय जो इस तत्त्व को पहचान जाय, उसी को इस संसार में विवेकशील जानना चाहिये।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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