जाकै हरि जू कौ बरु ताकै -सूरदास

सूरसागर

2.परिशिष्ट

भ्रमर-गीत

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राग नट




जाकै हरि जू कौ बरु ताकै धौ कौन कौ डरु।
काहै जिय सोच कीजै को है हो ऐसौ अबरु।।
सबहिनि के है नाथ जीवन बाही कै हाथ बैई अजर अमर अजित अकाथ।
सोई बसै साथ सदा सरन अनाथ वेद बदत विदुष देखौ धौ गावत गाथ।।
सुनि धौ जिनकी भीति सकल चलत नीति अपनी प्रतीति चित थकित रहत।
रवि न तपत अति वायु न तजत गति डालत न सेष सिर सिंधु न बहत।।
काल के मारनहार प्रगट धरनि बसि अनाथ अभय करि हिय हुलसत।
प्रगट ‘सूर’ के स्वामी अखिल अतरजामी असुर अबोध दुष्ट अजहूँ ग्रसत।। 41 ।।

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