जसुमति बूझति फिरति गोपालहिं।
साँझ की बिरियाँ भई सखी री, मैं डरपति जंजालहिं।
जब तैं तृनावर्त ब्रज आयौ, तब तैं मो जिय संक।
नैननि ओट होत पल एकौ, मैं मन भरति अतंक।।
इहिं अंतर बालक सब आए, नंदहिं करत गुहारि।
सूर स्याम कौं आइ कौन धौं, लै गयौ काँधैं डारि।।605।।