जयदेव द्वारा गीतगोविन्द की रचना

गीत गोविन्द

जयदेव जी प्रेम में डूबे हुए सदा श्रीकृष्ण का नाम-गान करते रहते थे। एक दिन भावावेश में अकस्‍मात उन्‍होंने देखा मानो चारों ओर सुनील पर्वत श्रेणी है, नीचे कल-कल-नन्दिनी कालिन्‍दी बह रही है। यमुना तीर पर कदम्‍ब के नीचे खड़े हुए भगवान श्रीकृष्ण मुरली हाथ में लिये मुसकरा रहे हैं। यह दृश्‍य देखते ही जयदेव जी के मुख से अकस्‍मात यह गीत निकल पड़ा-

मेघैर्मेदुरमम्‍बरं वनभुव: श्‍यामास्‍तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्‍वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्‍थं नन्‍दनिदेशतश्‍चलितयो: प्रत्‍यध्‍वकुंजद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रह:केलय:।।


पराशर इस मधुर गान को सुनकर मुग्‍ध हो गया। बस, यहीं से ललितमधुर ‘गीत-गोविन्‍द’ आरम्‍भ हुआ! कहा जाता है, यहीं जयदेव जी को भगवान के दसावतारों के प्रत्‍यक्ष दर्शन हुए और उन्‍होंने ‘जय जगदीश हरे’ की टेर लगाकर दसों अवतारों की क्रमश: स्‍तुति गायी।[1]

जयदेव जी कुछ समय गौड़ में रहने के बाद पद्मावती और श्रीराधा-माधव जी के विग्रहों को लेकर राजा की अनुमति से जयदेव जी अपने गाँव लौट आये। यहाँ उनका जीवन श्रीकृष्‍ण के प्रेम में एकदम डूब गया। उसी प्रेमरस में डूबकर इन्‍होंने मधुर ‘गीत-गोविन्‍द’ की रचना की।

चमत्कारिक प्रसंग

एक दिन श्री जयदेव जी ‘गीत-गोविन्‍द‘ की एक कविता लिख रहे थे, परंतु वह पूरी ही नहीं हो पाती थी। पद्मावती ने कहा- "देव ! स्‍नान का समय हो गया है, अब लिखना बंद करके आप स्‍नान कर आयें तो ठीक हो।" जयदेव जी ने कहा- "पद्मा ! जाता हूँ। क्‍या करूँ, मैंने एक गीत लिखा है; परंतु उसका शेष चरण ठीक नहीं बैठता। तुम भी सुनो-

स्‍थलकमलगंजनं मम हृदयरंजनं जनितरतिरंगपरभागम्।
भण मसृणवाणि करवाणि चरणद्वयं सरसलसदलक्तकरागम्।।

स्‍मरगरलखण्‍डनं मम शिरसि मण्‍डनम्-

इसके बाद क्‍या लिखूँ, कुछ निश्‍चय नहीं कर पाता!' पद्मावती ने कहा- "इसमें घबराने की कौन-सी बात है! गंगा-स्‍नान से लौटकर शेष चरण लिख लीजियेगा।"

‘अच्‍छा, यही सही। ग्रन्‍थ को और कलम-दावात को उठाकर रख दो, मैं स्‍नान करके आता हूँ।'

जयदेव जी इतना कहकर स्‍नान करने चले गये। कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारण कर स्‍वयं भगवान श्रीकृष्‍ण पधारे और बोले- "पद्मा ! जरा ‘गीत-गोविन्‍द‘ देना।"

पद्मावती ने विस्मित होकर पूछा, ‘आप स्‍नान करने गये थे न? बीच से ही कैसे लौट आये?’

महामायावी श्रीकृष्ण ने कहा- "रास्‍ते में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी से लौट आया।" पद्मावती ने ग्रन्‍थ और कलम-दावात ला दिये। जयदेव-वेषधारी भगवान ने-

देहि मे पदपल्‍लवमुदारम्-

लिखकर कविता की पूर्ति कर दी। तदनन्‍तर पद्मावती से जल मँगाकर स्‍नान किया और पूजादि से निवृत्त होकर भगवान के निवेदन किया हुआ पद्मावती के हाथ से बना भोजन पाकर पलँग पर लेट गये।

पद्मावती पत्तल में बचा हुआ प्रसाद पाने लगी। इतने में ही स्‍नान करके जयदेव जी लौट आये। पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती सहम गयी और जयदेव भी पत्‍नी को भोजन करते देखकर विस्मित हो गये। जयदेव जी ने कहा- "यह क्‍या? पद्मा, आज तुम श्रीमाधव के भोग लगाकर मुझको भोजन कराये बिना ही कैसे जीम रही हो? तुम्‍हारा ऐसा आचरण तो मैंने कभी नहीं देखा।"

पद्मावती ने कहा- "आप यह क्‍या कह रहे हैं? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिये रास्‍ते से ही लौट आये थे, कविता की पूर्ति करने के बाद आप अभी-अभी तो स्‍नान-पूजन-भोजन करके लेटे थे। इतनी देर में मैं आपको नहाये हुए-से आते कैसे देख रही हूँ!" जयदेव जी ने जाकर देखा, पलँग पर कोई नहीं लेट रहा है। वे समझ गये कि आज अवश्‍य ही यह भक्त वत्‍सल की कृपा हुई है। फिर कहा- "अच्‍छा, पद्मा ! लाओ तो देखें, कविता की पूर्ति कैसे हुई है।"

पद्मावती ग्रन्‍थ ले आयी। जयदेव जी ने देखकर मन-ही-मन महा- "यही तो मेरे मन में था, पर मैं संकोच वश लिख नहीं रहा था।" फिर वे दोनों हाथ उठाकर रोते-रोते पुकारकर कहने लगे- 'हे कृष्‍ण ! नन्‍दनन्‍दन, हे राधावल्‍लभ, हे व्रजांगनाधव, हे गोकुलरत्‍न, करुणासिन्‍धु, हे गोपाल ! हे प्राणप्रिय ! आज किस अपराध से इस किंकर को त्‍यागकर आपने केवल पद्मा का मनोरथ पूर्ण किया!' इतना कहकर जयदेव जी पद्मावती की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे। पद्मावती ने कितनी ही बार रोककर कहा- "नाथ ! आप मेरा उच्छिष्‍ट क्‍यों खा रहे हैं?" परंतु प्रभु-प्रसाद के लोभी भक्त जयदेव ने उसकी एक भी नहीं सुनी।

इस घटना के बाद उन्‍होंने ‘गीत-गोविन्‍द’ को शीघ्र ही समाप्‍त कर दिया। तदनन्‍तर वे उसी को गाते मस्‍त हुए घूमा करते। वे गाते-गाते जहाँ कहीं जाते, वहीं भक्त का कोमलकान्‍त गीत सुनने के लिये श्रीनन्‍दनन्‍दन छिपे हुए उनके पीछे-पीछे रहते। धन्‍य प्रभु ![1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 554

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