जब जब दीननि कठिन परी।
जानत हौं करुनामय जन कौ तब तब सुगम करी।
सुभा मँक्तार दुष्ट दुस्सासन द्रौपदि आनि धरी।
सुमिरत पट कौ कोट बढ़यौ तब, दुख-सागर उबरी।
ब्रह्म-बाण तै गर्भ उबारयौ, टेरत जरी जरी।
विपति-काल पांडव-बधु बन मैं राखी स्याम ढरी।
करि भोजन अवसेस जज्ञ कौ त्रिभुवन-भूख हरी।
पाइ पियादे धाइ ग्राह सों लीन्हौ राखि करी।
तब तब रच्छा करी भगत पर जब बिपति परी।
महा मोह मैं परयौ सूर प्रभु, काहैं सुधि बिसरी।।16।।