जबहीं मुरली अधर लगावत।
अंग-अंग रस भरि उमगत हैं, जातैं पुनि-पुनि भावत।।
ओरै दसा होति पलकहिं मैं, अगम-प्रीति परकासत।
तब चितवत काहूँ तन नाहीं, जबहीं नाद मुख भाषत।।
ग्रीव नवाइ देत हैं चुंबन, सुनि धुनि दसा बिसारत।
सूर मुरछि लटकत ताही पर, ताही रसहिं बिचारत।।1324।।