जबहिं बन मुरली स्रवन परी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग जैतश्री




जबहिं बन मुरली स्रवन परी।
चक्रित भई गोपकन्या सब, काम धाम बिसरी।।
कुल मर्जादा वेद की आज्ञा, नैकुहूँ नहीं डरीं।।
स्याम-सिंधु, सरिता-ललना गन, जल की ढरनि ढरीं।।
अंग-मरदन करिबे कौं लागीं, उबटन तेल धरी।।
जो जिहिं भाँति चली सो तैसेहिं, निसि बन कौं जु खरी।।
सुत-पति-नेह, भवन-जन-संका, लज्जा नाहिं करी।।
सूरदास-प्रभु मन हरि लीन्हौ, नागर नवल हरी।।1000।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः