जन के उपजत दुख किन काटत -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राम धनाश्री




जन के उपजत दुख किन काटत?
जैसैं प्रथम-अषाड़-आँजु-तृन, खेतिहर निरखि उपाटत।
जैसैं मीन किलकिला दरसत, ऐसैं रहौ प्रभु डाटत।
पुनि पाछैं अब-सिंधु बढ़त है, सूर खाल किन पाटत।।107।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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