जनम साहिवी करत गयौ।
काया-नगर बड़ी गुंजाइस, नाहिंन कछु बढ़यौ।
हरि कौ नाम, दान खोटे लौं झकि-झकि डारि दयौ।
विषया-गाँव अमल कौ टोटौ, हँसि-हँसि कै उमयौ।
नैन-अमीन, अधर्मिनि के बस, जहँ कौ तहाँ छयौ।
दगाबाज कुतवाल काम रिपु, सरबस लूटि लयौ।
पाप उजीर कह्यौ सोइ मान्यौ धर्म-सुधन लुटयौ।
चरनोदक कौं छाँड़ि सुधारस, सुरा-पान अँचयौ।
कुबुधि-कामन चढ़ाइ कोप करि, बुधि-तरकस रितयौ।
सदा सिकार करत मृग-मन कौं, रहत मगन भुरयौ।
धेरयौ आइ कुटुम-लसकर मैं, जम अहदी पठयौ।
सूर नगर चौरासी भ्रमि-भ्रमि, घर-घर कौ जु भयौ। 64।।