जननी पुनि पुनि ग्रीव निहारै।
देखौ नहीं मुतिसरी माला, सो जनि कतहूँ डारै।।
बोलै नहीं बात यह सुनि रही, मन लागी मुसुकान।
अबही मोकौ खीझि पठैहै, बनिहै ह्वाँ कौ जान।।
भली बुद्धि मेरै वित आई, कृष्न प्रीति है साँची।
'सूरदास' राधिका नागरी, नागर तै रँग राँची।।1968।।