जननी, हौं रघुनाथ पठायौ।
रामचंद्र आए की तुमकौ देन बधाई आयौ।
हौं हनुमंत,कपट जिनि समझौ, बात कहत, सतभाई।
मुँदरी दूत धरी लै आगै, तब प्रतीति जिय आई।
अति सुख पाइ उठाइ लई तब, बार-बार उन भेंटै।
ज्यौं मलयागिरि पाइ आपनी जरनि हृदै कौ भेंटै।
लछिमन पालागन कहि पठयौ, हेत बहुत करि माता।
दई असीस तरनि- सम्मुख ह्वै, चिरजीवौ दोउ भ्राता।
बिछुरन कौ संताप हमारौ, तुम दरसन दै काट्यौ
ज्यौं रवि-तेज पाइ दसहूँ दिसि, दोष कुहर कौ फाट्यौ
ठाढ़ौ विनती करत पवन-सुत, अब जो आज्ञा पाऊँ।
अपनैं देखि चले कौ यह सुख, उनहूँ जाइ सुनाऊँ।
कल्प-समान एक छिन राघव, क्रम-क्रम करि हैं बितवत।
तातैं हौं अकुलात, कृपानिधि ह्वैहैं पैड़ौं चितवत।
रावन हति, लै चलौं साथ ही, लंका धरौं अपूठी।
यातैं जिय सकुचात, नाथ की होइ प्रतिज्ञा झूठी।
अव ह्याँ की सब दसा हमारी, सूर सो कहियौ जाइ।
बिनती अहुत कहा कहौं, जिहिं विधि देखौं रघुपति-पाइ॥87॥