जदुपति जानि उद्धव रीति।
जिहिं प्रगट निज सखा कहियत, करत भाव अनीति।।
बिरह दुख जहँ नाहिं नैकहुँ, तहँ न उपजै प्रेम।
रेख, रूप न बरन जाकै, इहिं धरयौ वह नेम।।
त्रिगुन तन करि लखत हमकौं, ब्रह्म मानत और।
बिना गुन क्यौ पुहुमि उधरै, यह करत मन डौर।।
बिरस रस किहिं मंत्र कहिऐ, क्यौ चलै संसार।
कछु कहत यह एक प्रगटत, अति भरयौ अहँकार।।
प्रेम भजन न नैकु याकै, जाइ क्यौ समुझाइ।
‘सूर’ प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहिं देउँ पठाइ।। 3413।।