जग-सुख पाइ मुक्ति लहै सोइ3 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग बिलावल
च्यवन ऋषि की कथा


 
कह्यौ, यह बिभव कहाँ तै आयौ? पिता देखि, मिलिबे कौं धाई।
नृप ताकौ आदर नहिं दियौ। तै यह कर्म कौन है कियौ?
वृद्ध रिषीस्वर कौ कहा भयौ? कुल कलंक तै किहि मिलि दयौ।
कह्यौ, जोग-बी रिषि सब कीनौ। मोहि सुख सकल भाँति की दीनौ।
नृप प्रसन्न है रिषि पै आयौ। जग-प्रसंग कहिकै गृह ल्यायौ।
रानी सुता देखि सुत मान्यौ। धन्य जन्म अपनौ करि जान्यौ।
च्यवन नृपत को जज्ञ करायौ। अस्विनि-सुत हि भाग उठायौ।
इंद्र -हाथ ऊपर रहि गयौ। ताहि भाग तुम काहैं दयौ ?
पुनि मारन कौ बज्र उठायौ। पै रिषि कौ मारन नहिं पायौ।
इंद्र-हाथ ऊपर रहि गयौ। तिन कह्यौ, दई कहा यह भयौ?
कह्यौ, सुरनि तुम रिषिहिं सतायौ। तातै कर रहि गयौ उचायौ।
इंद्र बिनय रिषि सौ बहु करी। तब रिषि कृपा ताहि पर घरी।
सुरपति-कर तब नीचै आयौ। अस्विनि-सुत बलि सुर मै पायौ।
ऐसौ है हरि-भक्ति-प्रभाव। बरनि कह्यौ मै तुमसों राव।
हरि की भक्ति करै जो कोइ। दुहुँ लोक कौ सुख तिहिं होइ।
सुक ज्यौ नृप सौ कहि समुझायौ। सूरदास त्यौही कहि गायौ।।3।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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