जगपति नाम सुन्यौ हरि, तेरौ।
मन चातक जल तज्यौ स्वाति-हित, एक रूप ब्रत धारयौ।
नैकु वियोग मीन नहिं मानत, प्रेम-काज बपु हारयौ।
राका-निसि केते अंतर ससि, निमिष चकोर न लावत।
निरखि पतंग बानि नहिं छाँड़त, जदपि जोति तनु तावत।
कीन्हे नेह-निबाह जीव जड़, ते इत-उत नहिं चाहत।
जैहै काहि समीप सूर नर कुटिल बचन-द्रव दाहत।।।210।।
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