छीतस्वामी
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पूरा नाम | छीतस्वामी |
जन्म | संवत 1572 विक्रमी (1515 ई.) |
जन्म भूमि | मथुरा, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | संवत 1642 विक्रमी (1585 ई.) |
मृत्यु स्थान | पूंछरी, गोवर्धन के निकट। |
कर्म भूमि | मथुरा |
मुख्य रचनाएँ | 'आठ पहर की सेवा', 'कृष्ण लीला के विविध प्रसंग' तथा 'गोसाईं जी की बधाई' आदि। |
भाषा | ब्रजभाषा |
प्रसिद्धि | अष्टछाप के कवि |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | पूंछरी, गोवर्धन, मथुरा, अष्टछाप। |
गुरु | गोसाईं विट्ठलनाथ |
अन्य जानकारी | छीतस्वामी बाल्यावस्था से ही नटखट और असाधु प्रकृति के व्यक्ति थे, परंतु भक्ति के महान आचार्य परम भगवदीय गोसाईं विट्ठलनाथ की कृपा-साधु ने छीत चौबे को परम भक्त हरिपरायण और रसिक भगवद्-यशगायक में रूपान्तरित कर लिया। |
छीतस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य और 'अष्टछाप' के कवियों में गिने जाते थे। पहले ये मथुरा के सुसम्पन्न पंडा थे और राजा बीरबल जैसे लोग इनके जजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड स्वभाव के थे, किंतु बाद में गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और भगवान श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगे।
विषय सूची
परिचय
छीतस्वामी मथुरा, उत्तर प्रदेश के चौबे थे। उनका जन्म लगभग 1572 विक्रमी संवत (1515 ई.) में हुआ था। वे बाल्यावस्था से ही नटखट और असाधु प्रकृति के व्यक्ति थे, परंतु भक्ति के महान आचार्य परम भगवदीय गोसाईं विट्ठलनाथ की कृपा-साधु ने छीत चौबे को परम भक्त हरिपरायण और रसिक भगवद्-यशगायक में रूपान्तरित कर लिया।
विट्ठलनाथ के शिष्य
बीस साल की अवस्था में छीतस्वामी गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्य हो गये। उन दिनों श्रीविट्ठलनाथ जी की अलौकिक भक्ति निष्ठा की चर्चा चारों ओर तेजी से फैल रही थी। कुछ साथियों को लेकर छीत चौबे ने उनकी परीक्षा लेने के लिये गोकुल की यात्रा की। गोसाईं जी के हाथ में सूखे नारियल और खोटे रुपये की भेंट रखी। नारियल में गिरी निकल आयी और खोटा रुपया भी ठीक निकला। गोसाईं जी के दर्शन से छीतस्वामी का मन बदल चुका था। उनके चमत्कार से प्रभावित होकर उन्होंने क्षमा मोंगी और कहा कि- "मुझे अपनी चरण-शरण के अभय दान से कृतार्थ कीजिये। आप दयासिन्धु हैं। हरिभक्तिसुधादान से मेरे पाप-ताप का शमन करके भवसागर से पार होने का मंत्र दीजिये। आपका प्रश्रय छोड़कर दूसरा स्थान मेरे लिये है भी तो नहीं, सागर से सरिता मिलती है तो प्यासी थोड़े रह जाती है।" श्रीगोसाईं जी महाराज ने उनको ब्रह्मसम्बन्ध दिया। ==पद रचना गुरु के पादपद्म मकरन्द के रसास्वादन से प्रमत्त होकर छीतस्वामी ने अपनी काव्य-भारती का आवाहन किया-
"भई अब गिरिधर सों पहिचान।
कपटरूप धरि छलिबे आये, पुरुषोत्तम नहिं जान।।
छोटौ बड़ौ कछू नहिं जान्यौ, छाय रह्यौ अग्यान।
"छीत" स्वामि देखत अपनायौ, बिट्ठल कृपानिधान।।"
दीक्षा ग्रहण के बाद छीतस्वामी ने 'नवनीतप्रिय' के दर्शन किये। उन्होंने गासोईं जी से घर जाने की आज्ञा मांगी। कुछ काल के बाद वे स्थायी रूप से गोवर्धन के निकट 'पूंछरी' स्थान पर श्याम तमाल वृक्ष के नीचे रहने लगे। वे श्रीनाथ जी के सामने कीर्तन करते और उनकी लीला के सरस पदों की रचना करते थे। उनके पद सीधी-सादी सरल भाषा में हैं। ब्रजभूमि के प्रति उनमें प्रगाढ़ अनुराग था।
रचनायें
इनकी रचनाओं का समय सन 1555 ई. के आसपास माना जाता हैं। छीतस्वामी के केवल 64 पदों का पता चला है। उनका अर्थ-विषय भी वही है, जो 'अष्टछाप' के अन्य प्रसिद्ध कवियों के पदों का है, यथा-
- आठ पहर की सेवा
- कृष्ण लीला के विविध प्रसंग
- गोसाईं जी की बधाई
इनके पदों का एक संकलन विद्या-विभाग, कांकरौली से 'छीतस्वामी' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है।
अष्टछाप के कवि
"ए हो बिधिना! तो सों अंचरा पसारि मांगौं, जनम जनम दीजै याही ब्रज बसिबौ" से उनकी ब्रजक्षेत्र के प्रति आस्था का पता चलता है। गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने उनकी दृढ़ भक्ति और सरस पद-रचना से प्रसन्न होकर उनको 'अष्टछाप' में सम्मिलित कर लिया। वे नि:स्पृहता के मूर्तिमान रूप थे।
देह त्याग
गोसाईं विट्ठलनाथ जी के लीला-प्रवेश के बाद संवत 1642 विक्रमी (1585 ई.) में छीतस्वामी ने अपने निवास स्थान पर पूंछरी में देह त्याग कर दिया। उन्होंने 'पुष्टिमार्ग' के विकास में महान योग दिया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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