छार भूमि जोगी तन, निरगुन तहँ बीजै।
बहुत जतन पायौ तुम, ब्रज बेऍ नहि छीजै।।
आल बाल बाघांबर, नैन मूँदि सीचै।
मुरली बस मानस ह्याँ, को मृग नैन मीचै।।
रूखी चट लकुट टेकि, मीन बंध दीजै।
सगबगे सनेह इहाँ, उन बिनु नहिं जीजै।।
उपजौ जब दंपति, वासना धाम बाँचै।
इहाँ रास स्याम संग, अंग अग नाचै।।
मौन फूल तारे फल देह किए पावै।
‘सूर’ स्याम चुटकिनि फल धाइ कंठ लावै।। 190 ।।