कुंडल लीला कपोलनि झलकत, ऐसी सोभा देत।
मानहुँ सुधा सिंधु मैं क्रीड़त, मकर पान कैं हेत।।
उपजावत गावत गति सुंदर अनाघात के ताल।
सरबस दियौ मदन मोहन कौं, प्रेम-हरषि सब ग्वाल।।
लोलित बैजंती चरननि पर, स्वासा-पवन-झकोर।
मनहुँ गर्बि सुरसरि बहि आई, ब्रह्म-कमंडल फोरि।।
डुलति लता नहिं, मरुत मंद गति, सुनि सुंदर मुख बैन।
खग मृग मीन अधीन भए सब, कियौ जमुन-जल सैन।।
झलमलाति भृगु-पद की रेखा, सुभग साँवरै गात।
मनु षट बिधु एकै रथ बैठे, उदय कियौ अधिरात।।
बांकै चरन-कमल, भुज बांकै, अवलोकनि जु अनूप।
मानहुँ कलप-तरोवर-बिरवा, अवनि रच्यौ सुर-भूप।।
अति सुख दियौ गुपाल सबनि कौं, सुखदायक जिय जान।
सूरदास चरननि-रज माँगत निरखत रूप-निधान।।1216।।