श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी60. भगवद्भाव की समाप्ति
श्रीवास पण्डित को अद्वैताचार्य की सम्मति बहुत युक्तियुक्त प्रतीत हुई। उनकी बात का समर्थन करते हुए वे बोले- ‘हाँ, आप ठीक कहते हैं। इस ऐश्वर्यमय रूप की अपेक्षा तो हमें गौररूप की प्रिय है। हम सभी मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि प्रभो! अब इस अपने अद्भुत अलौकिक भाव को संवरण कीजिये ओर हम लोगों को फिर उसी गौररुप से दर्शन दीजिये।’ श्रीवास जी की यह बात सभी को पसंद आयी और सभी हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- ‘प्रभो! अब अपने इस ऐश्वर्य को अप्रकट कर लीजिये। इस तेज से हम संसारी जीव जल जायँगे। हममें इसे अधिक काल सहन करने की शक्ति नहीं है। अब हमें अपना वही असली गौररूप दिखाइये। ‘भक्तों की ऐसी प्रार्थना सुनकर प्रभु ने बड़े जोर के साथ एक हुंकार मारी। हुंकार मारते ही उन्हें एकदम मूर्छा आ गयी और मूर्छा आने पर यह कहते हुए कि ‘अच्छा तो लो अब हम जाते हैं’ अचेतन होकर सिंहासन पर से भूमिपर गिर पड़े। भक्तों ने जल्दी से उठाकर प्रभु को एक सुंदर से आसन पर लिटाया, प्रभु मूर्च्छित दशा में ज्यों–के-त्यों ही पड़े रहे। तनिक भी इधर-उधर को नहीं हिले-डुले। प्रभु को मुर्छित देखकर सभी भक्त विविध भाँति के उपचार करने लगे। कोई पंखा लेकर प्रभु को वायु करने लगे। सुगंधित तैल अथवा शीतल लेप प्रभु के मस्तक पर लेपन करने लगे, किंतु प्रभु की मूर्छा भंग नहीं हुई। प्रभु की परीक्षा के निमित्त अद्वैत और श्रीवास आदि प्रमुख भक्तों ने प्रभु ने प्रभु के सम्पूर्ण शरीर की परीक्षा की। उनकी नासिका के सामने बहुत देरतक हाथ रखे रहे, किंतु सांस बिलकुल चलता हुआ मालूम नहीं पड़ता था। हाथ-पैर तथा शरीर के सभी अंग-प्रत्यंग संज्ञाशून्य-से बने हुए थे। जिस अंग को जैसे भी डाल देते, वह वैसे ही पड़ा रहता, किसी प्रकार की चैतन्यपने की चेष्टा किसी भी अंग से प्रतीत नहीं होती थी। प्रभु की ऐसी दशा देखकर सभी भक्तों को बड़ा भारी भय-सा प्रतीत होने लगा। |