श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी57. हरिदासजी द्वारा नाम-माहात्म्य
हरिदास जी ने बड़ी ही नम्रता से कहा- ‘विप्रवर! मैं नीच पुरुष भला शास्त्रों का मर्म क्या जानूँ? किंतु आप-जैसे विद्वानों के ही मुख से सुना है कि चाहे वेद-शास्त्रों के अध्ययन का द्विजातियों के अतिरिक्त किसी को अधिकार न हो, किंतु भगवन्नाम तो किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन तथा खस आदि जितनी भी पापयोनि और जंगली जाति हैं, सभी को पावन बनाने वाला है। भगवन्नाम का अधिकार तो सभी को समानरूप से है।[1] हरिदास जी के इस शास्त्र सम्मत उत्तर को सुनकर ब्राह्मण ने पूछा- ‘खैर, भगवन्नाम का अधिकार सबको भले ही हो, किंतु मन्त्र का जप इस प्रकार जोर-जोर से करने से क्या लाभ? शास्त्रों में मानसिक, उपांशु और वाचिक- ये तीन प्रकार के जप बताये हैं। जिनमें वाचिक जप से सहस्रगुणा उपांशु- जप श्रेष्ठ है, उपांशु-जप से लक्षगुणा मानसिक जप श्रेष्ठ है। तुम मन में जप करो, तुम्हारे इस जप को तो मानसिक, उपांशु अथवा वाचिक किसी प्रकार का भी जप नहीं कह सकते। यह तो ‘वैखरी-जप’ है जो अत्यन्त ही नीच बताया गया है।’ हरिदास जी ने उसी प्रकार नम्रतापूर्वक कहा- ‘महाराज! मैं स्वयं तो कुछ जानता नहीं, किंतु मैंने अपने गुरुदेव श्रीअद्वैताचार्य जी के मुख से थोड़ा-बहुत शास्त्र का रहस्य सुना है। आपने जो तीन प्रकार के जप बताये हैं और जिनमें मानसिक जप को सर्वश्रेष्ठता दी है, वह तो उन मन्त्रों के जप के लिये है। जिनकी विधिवत गुरु के द्वारा दीक्षा लेकर शास्त्र की विधि के अनुसार केवल पवित्रावस्था में ही सांगोपांग जप किया जाता है। ऐसे मन्त्र गोप्य कहे जाते हैं। वे दूसरों के सामने प्रकट नहीं किये जाते। किंतु भगवन्नाम के लिये तो शास्त्रों में कोई विधि ही नहीं बतायी गयी है। इसका जप तो सर्वकाल में, सर्वस्थानों में, सबके सामने और सब परिस्थितियों में किया जाता है। अन्य मन्त्रों का चाहे धीरे-धीरे जप का अधिक माहात्म्य भले ही हो, किंतु भगवन्नाम का माहात्म्य तो जोरों से ही उच्चारण करने में बताया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकंका यवनाः खसादयः। येअन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।।श्रीमद्भा. 2/4/18