श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी55. भक्त हरिदास
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। दिन बीता, शाम हुई। रात्रि बीती, प्रातःकाल हुआ। इसी प्रकार चार दिन व्यतीत हो गये। वारांगना रोज आती और रोज ज्यों-की-त्यों ही लौट जाती। कभी-कभी बीच में साहस करके हरिदास जी से कुछ बातें करने की इच्छा प्रकट करती, तो हरिदास जी बड़ी ही नम्रता के साथ उत्तर देते- ‘आप बैठें, मेरे नाम-जप की संख्या पूरी हो जाने दीजिये, तब मैं आपकी बातें सुन सकूँगा।’ किंतु नाम-जप की संख्या दस-बीस या हजार-दो हजार तो थी ही नहीं, पूरे तीन लाख नामों का जप करना था, सो भी उच्च स्वर से गायन के साथ। इसलिये चारों दिन उसे निराश ही होना पड़ा। सुबह से आती, दोपहर तक बैठती, हरिदास जी लय से गायन करते रहते- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। बेचारी बैठे-बैठे स्वयं भी इसी मन्त्र को कहती रहती। शाम को आती तो आधी रात्रि तक बैठी रहती। हरिदास जी का जप अखण्डरूप से चलता रहता- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। चार दिन निरन्तर हरिनामस्मरण से उसके सभी पापों का क्षय हो गया। पापों के क्षय हो जाने से उसकी बुद्धि एकदम बदल गयी, अब तो उसका हृदय उसे बार-बार धिक्कार देने लगा। ऐसे महापुरुष के निकट मैं किस बुरे भाव से आयी थी, इसका स्मरण करके वह मन-ही-मन अत्यन्त ही दुःखी होने लगी। अन्त में उससे नहीं रहा गया। वह अत्यन्त ही दीन भाव से हरिदास जी के चरणों में गिर पड़ी और आँखों से आँसू बहाते हुए गद्गदकण्ठ से कहने लगी- ‘महाभाग! सचमुच ही आप पतितपावन हैं। आप जीवों पर अहैतु की कृपा ही करते हैं। आप परम दयालु हैं, अपनी कृपा के लिये आप पात्र-अपात्र का विचार न करके प्राणिमात्र के प्रति समान भाव से दया करते हैं। मुझ-जैसी पतिता, लोकनिन्दिता और खोटी बुद्धिवाली अधम नारी के ऊपर भी आपने अपनी असीम अनुकम्पा प्रदर्शित की। भगवन! मैं खोटी बुद्धि से आपके पास आयी थी, किंतु आपके सत्संग के प्रभाव से मेरे वे भाव एकदम बदल गये। |