श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी52. प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
मुकुन्द फिर उसी लय से स्वर के साथ श्लोक-पाठ करने लगे। वे ज्यों-ज्यों श्लोक-पाठ करते, त्यों-ही-त्यों पुण्डरीक महाशय की बेकली और बढ़ती जाती थी। वे पुनः-पुनः श्लोक पढ़ने के लिये आग्रह करने लगे, किंतु उनके साथियों ने उन्हें श्लोक-पाठ करने से रोक दिया। पुण्डरीक विद्यानिधि बेहोश पड़े हुए अश्रु बहा रहे थे। इनकी ऐसी दशा देखकर गदाधर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। क्षणभर पहले जिन्हें वे संसारी विषयी समझ रहे थे, उन्हें अब इस प्रकार प्रेम में पागलों की भाँति प्रलाप करते देखकर वे भौंचक्के-से रह गये। उनके त्याग, वैराग्य और उपरति के भाव न जाने कहाँ विलीन हो गये, अपने को बार-बार धिक्कार देने लगे कि ऐसे परम वैष्णव के प्रति मैंने ऐसे कलुषित विचार रखकर घोर पाप किया है। वे मन-ही-मन अपने पाप का प्रायश्चित सोचने लगे। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि वैसे तो हमारा यह अपराध अक्षम्य है। भगवदपराध तो क्षम्य हो भी सकता है, किंतु वैष्णवापराध तो सर्वदा अक्षम्य है। इसके प्रायश्चित्त का एक ही उपाय है। हम इनसे मन्त्र-दीक्षा ले लें, इनके शिष्य बन जायँ, तो गुरु-भाव से ये स्वयं ही क्षमा कर देंगे। ऐसा निश्चय करके इन्होंने अपना भाव मुकुन्ददत्त के सम्मुख प्रकट किया। इनके ऐसे विशुद्ध भाव को समझकर मुकुन्ददत्त को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने इनके विमलभाव की सराहना की। बहुत देर के अनन्तर पुण्डरीक महाशय प्रकृतिस्थ हुए। सेवकों ने उनके शरीर को झाड़-पोंछकर ठीक किया। शीतल जल से हाथ-मुँह धोकर वे चुपचाप बैठ गये। तब विनीत भाव से मुकुन्द ने कहा- ‘महाशय! ये गदाधर पण्डित कुलीन ब्राह्मण हैं, सत्पात्र हैं, परम भागवत वैष्णव हैं। इनकी हार्दिक इच्छा है कि ये आपके द्वारा मन्त्र ग्रहण करें। इनके लिये क्या आज्ञा होती है?’ कुछ संकोच और नम्रता के साथ विद्यानिधि महाशय ने कहा- ‘ये तो स्वयं ही वैष्णव हैं, हममें इतनी योग्यता कहाँ है, जो इन्हें मन्त्र-दीक्षा दे सकें? ये तो स्वयं ही हमारे पूज्य हैं।’ मुकुन्ददत्त ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- ‘इनकी ऐसी ही इच्छा है। यदि आप इनकी इस प्रार्थना को स्वीकार न करेंगे तो इन्हें बड़ा भारी हार्दिक दुःख होगा। आप तो कृपालु हैं, दूसरे को दुःखी देखना ही नहीं चाहते। अतः इनकी यह प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये।’ मुकुन्ददत्त के अत्यधिक आग्रह करने पर इन्होंने मन्त्र-दीक्षा देना स्वीकार कर लिया और दीक्षा के लिये उसी दिन एक शुभ-मुहूर्त भी बता दिया। इस बात से दोनों मित्रों को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बहुत रात्रि बीतने पर प्रेम में निमग्न हुए अपने-अपने स्थानों के लिये लौट आये। |