श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी49. व्यासपूजा
महाप्रभु गौरांग का नाम सुनते ही इनके हृदय-सागर में हिलोरें-सी उठने लगीं। गौर के दर्शनों के लिये मन व्याकुल हो उठा। इसीलिये ये नवद्वीप की ओर चल पड़े। आज नन्दनाचार्य के घर गौर ने स्वयं आकर इन्हें दर्शन दिये। इनके दर्शनमात्र से ही इनकी चिरकाल की मनःकामना पूर्ण हो गयी। जिसके लिये ये व्याकुल होकर देश-विदेशों में मारे-मारे फिर रहे थे, वह वस्तु आज स्वयं ही इन्हें प्राप्त हो गयी। ये स्वयं संन्यासी थे, गौरांग अभी तक गृहस्थी में ही थे। गौरांग से ये अवस्था में भी दस-ग्यारह वर्ष बड़े थे, किंतु प्रेम में तो छोटे-बड़े या उच्च-नीच का विचार होता ही नहीं, इन्होंने सर्वतोभावेन गौरांग को आत्मसमर्पण कर दिया। गौरांग ने भी इन्हें अपना बड़ा भाई समझकर स्वीकार किया। नन्दनाचार्य के घर से नित्यानन्द जी को साथ लेकर गौरांग भक्तों सहित श्रीवास पण्डित के घर पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही संकीर्तन आरम्भ हो गया। सभी भक्त नित्यानन्द जी के आगमन के उल्लास में नूतन उत्साह के साथ भावावेश में आकर जोरों से कीर्तन करने लगे। भक्त प्रेम में विह्वल होकर कभी तो नाचते, कभी गाते और कभी जोरों से ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ की तुमुल ध्वनि करते। आज के कीर्तन में बड़ा ही आनन्द आने लगा, मानो सभी भक्त प्रेम में बेसुध होकर अपने-आपे को बिलकुल भूल गये हों। अब तक गौरांग शान्त थे, अब उनसे भी न रहा गया। वे भी भक्तों के साथ मिलकर शरीर की सुधि भुलाकर जोरों से हरि-ध्वनि करने लगे। महाप्रभु नित्यानन्द जी के दोनों हाथों को पकड़कर आनन्द से नृत्य कर रहे थे। नित्यानन्दजी भी काठ की पुतली की भाँति महाप्रभु के इशारे के साथ नाच रहे थे। अहा! उस समय की छबि का वर्णन कौन कर सकता है? भक्तवृन्द मन्त्रमुग्ध की भाँति इन दोनों महापुरुषों का नृत्य देख रहे थे। पखावजवाला पखावज न बजा सका। जो भक्त मजीरे बजा रहे थे, उनके हाथों से स्वतः ही मजीरे गिर पड़े। सभी वाद्यों का बजना बंद हो गया। भक्त जड-मूर्ति की भाँति चुपचाप खड़े निमाई और निताई के नृत्य के माधुर्य का निरन्तर भाव से पान कर रहे थे। नृत्य करते-करते निमाई ने निताई का आलिंगन किया। आलिंगन पाते ही निताई बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, साथ ही निमाई भी चेतना शून्य-से बन गये। क्षणभर के पश्चात् महाप्रभु जोरों के साथ उठकर खड़े हो गये और जल्दी से भगवान के आसन पर जा बैठे। अब उनके शरीर में बलराम जी का-सा आवेश प्रतीत होने लगा। उसी भावावेश में वे ‘वारुणी’, ‘वारुणी’ कहकर जोरों से चिल्लाने लगे। हाथ जोड़े हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! जिस ‘वारुणी’ की आप जिज्ञासा कर रहे हैं, वह तो आपके ही पास है। आप जिसके ऊपर कृपा करेंगे, वही उस वारुणी का पान करके पागल बन सकेगा।’ |