श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी48. स्नेहाकर्षण
नित्यानन्द-प्रभु को प्रकृतिस्थ देखकर प्रभु दीनभाव से कहने लगे- ‘श्रीपाद आज हम सभी लोग आपकी पदधूलि को मस्तक पर चढ़ाकर कृतकृत्य हुए। आपने अपने दर्शन से हमें बड़भागी बना दिया। प्रभो! आप-जैसे अवधूतों के दर्शन भला, हमारे-जैसे संसारी पुरुषों को हो ही कैसे सकते हैं? हम तो गृहरूपी कूप के मण्डूक हैं, इसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। आप-जैसे महापुरुष हमारे ऊपर अहैतु की कृपा करके स्वयं ही घर बैठे हमें दर्शन देने आ जाते हैं, इससे बढ़कर हमारा और क्या सौभाग्य हो सकता है?’ प्रभु की इस प्रेममयी वाणी सुनकर अधीरता के साथ निताई ने कहा- ‘हमने श्रीकृष्ण के दर्शन के निमित्त देश-विदेशों की यात्रा की, सभी मुख्य-मुख्य पुण्यस्थानों और तीर्थों में गये। सभी बड़े-बड़े देवालयों को देखा, जो-जो श्रेष्ठ और सात्त्विक देवस्थान समझे जाते हैं, उन सबके दर्शन किये, किंतु वहाँ केवल स्थानों के ही दर्शन हुए। उन स्थानों के सिंहासनों को हमने ख़ाली ही पाया। भक्तों से हमने पूछा- इन स्थानों से भगवान कहाँ चले गये? मेरे इस प्रश्न को सुनकर बहुत-से तो चकित रह गये, बहुत-से चुप हो गये, बहुतों ने मुझे पागल समझा। मेरे बहुत तलाश करने पर एक भक्त ने पता किया कि भगवान नवद्वीप में प्रकट होकर श्रीकृष्ण-संकीर्तन का प्रचार कर रहे हैं। तुम उन्हीं के शरण में जाओ, तभी तुम्हें शान्ति की प्राप्ति हो सकेगी। इसीलिये मैं नवद्वीप आया हूँ। दयालु श्रीकृष्ण ने कृपा करके स्वयं ही मुझे दर्शन दिये। अब वे मुझे अपनी शरण में लेते हैं या नहीं इस बात को वे जानें।’ इतना कहकर फिर नित्यानन्द प्रभु गौरांग की गोदी में लुढ़क पड़े। मानो उन्होंने अपना सर्वस्व गौरांग को अर्पण कर दिया हो। |