श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी48. स्नेहाकर्षण
श्रीकृष्ण प्रेम तो ऐसा अनोखा आसव है कि इसका जिसे तनिक भी चसका लग गया फिर वह कभी त्याग नहीं सकता। मनुष्य यदि फिर उसे छोड़ना भी चाहे तो वह स्वयं उसे पकड़ लेता है। शुकदेव जी को भी उस मधुमय मनोज्ञ मदिरा का चसका लग गया, फिर वे अपने अवधूतपने के आग्रह को छोड़कर श्रीमद्भागवत के पठन में संलग्न हो गये और पिता से उसे सांगोपांग पढ़कर ही वहाँ से उठे। तभी तो भगवान व्यासदेव जी कहते हैं- भगवान के गुणों में यही तो एक बड़ी भारी विशेषता है कि जिनकी हृदय-ग्रन्थि खुल गयी है, जिनके सर्व संशयों का जड़मूल से छेदन हो गया है और जिनके सम्पूर्ण कर्म नष्ट भी हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम मुनि भी उन गुणों में अहैतु की भक्ति करते हैं। क्यों न हो, वे तो रसराज हैं न? ‘प्रेमसिन्धु में डूबे हुए को किसी ने आज तक उछलते देखा ही नहीं।’ जिस श्लोक का इतना भारी महत्त्व है उसका भाव भी सुन लीजिये। गौएँ चराने मेरे नन्हें-से गोपाल वृन्दावन की ओर जा रहे हैं। साथ में वे ही पुराने ग्वाल-बाल हैं, उन्हें आज न जाने क्या सूझी है कि वे कनुआ की कमनीय कीर्ति का निरन्तर बखान करते हुए जा रहे हैं। सभी अपने कोमल कण्ठों से श्रीकृष्ण का यशोगान कर रहे हैं। इधर ये अपनी मुरली की तान में ही मस्त हैं, इन्हें दीन-दुनिया किसी का भी पता नहीं। अहा! उस समय की इनकी छबि कितनी सुन्दर है- ‘सम्पूर्ण शरीर की गठन एक सुन्दर नट के समान बड़ी ही मनोहर और चित्ताकर्षक है। सिर पर मोर मुकुट विराजमान है। कानों में बड़े-बड़े कनेर के पुष्प लगा रखे हैं, कनक के समान जिसकी द्युति है, ऐसा पीताम्बर सुन्दर शरीर पर फहरा रहा है, गले में वैजयन्ती माला पड़ी हुई है। कुछ आँखों की भृकुटियों को चढ़ाये हुए, टेढ़े होकर वंशी के छिद्रों को अपने अधरामृत से पूर्ण करने में तत्पर हैं। उन छिद्रों में से विश्वमोहिनी ध्वनि सुनायी पड़ रही है। पीछे-पीछे ग्वालबाल यशोदानन्दन का यशोगान करते हुए जा रहे हैं, इस प्रकार के मुरलीमनोहर अपनी पदरज से वृन्दावन की भूमि को पावन बनाते हुए व्रज में प्रवेश कर रहे हैं।’ जगत को उन्मादी बनाने वाले इस भाव को सुनकर जब अवधूतशिरोमणि शुकदेव जी भी प्रेम में पागल बन गये, तब फिर भला हमारे सहृदय अवधूत नित्यानन्द अपनी प्रकृति में कैसे रह सकते थे? श्रीवास पण्डित के मुख से इस श्लोक को सुनते ही वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इनके मूर्च्छित होते ही प्रभु ने श्रीवास से फिर श्लोक पढ़ने को कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भावत