श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी46. श्रीवाराहावेश
प्रभु ने उसी प्रकार गम्भीर स्वर में कहा- ‘मुरारी! तुम्हें भय करने की कोई बात नहीं। जो दुष्ट मेरे संकीर्तन में विघ्न करेगा, मैं उसका संहार करूँगा, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। तुम निर्भय रहो। नाम संकीर्तन द्वारा मैं जगदुद्धार का कार्य करूँगा।’ यह कहते-कहते प्रभु अचेत-से हो गये और वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े। कुछ काल के अनन्तर प्रभु प्रकृतिस्थ हुए और मुरारी से फिर उसी प्रकार की अधीरता की बातें करने लगे। मुरारी गुप्त तो इनके प्रभाव का पहले ही परिचय प्राप्त कर चुके थे। इसलिये उने भाव में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। प्रभु इस प्रकार मुरारी को अपने दर्शनों से कृतार्थ करके घर की ओर चले गये। इसी प्रकार भक्तों को अनेक भावों और लीलाओं से प्रभु सदा आनन्दित और सुखी बनाते हुए श्रीकृष्ण-कीर्तन में संलग्न बनाये रखते थे। एक दिन संकीर्तन करते-करते प्रभु ने बीच में ही कहा- ‘नदिया में अब शीघ्र ही एक महापुरुष आने वाले हैं, जिनके द्वारा नवद्वीप के कोने-कोने और घर-घर में श्रीकृष्ण-संकीर्तन का प्रचार होगा।’ प्रभु के मुख से इस बात को सुनकर सभी भक्तों को परम प्रसन्नता प्राप्त हुई और वे आनन्द के उद्रेक में और अधिक उत्साह के साथ नृत्य करने लगे। भक्तों को दृढ़ विश्वास था कि प्रभु ने जो बात कही है, वह सत्य ही होगी। इस बात को चार-पाँच ही दिन हुए होंगे कि एक दिन संकीर्तन के अनन्तर प्रभु ने भक्तों से कहा- ‘मेरे अग्रज, मेरे परम सखा, मेरे बन्धु और मेरे वे सर्वस्व महापुरुष अवधूत के वेश में नवद्वीप में आ गये हैं, अब तुम लोग जाकर उन्हें खोज निकालो।’ प्रभु की ऐसी आज्ञा पाकर भक्तगण उन अवधूत महापुरुष को खोजने के लिये गये। पाठकों को उत्सुकता होगी, कि ये निमाई के सर्वस्व अवधूत-वेश में कौन महापुरुष थे? असल में ये अवधूत नित्यानन्द जी ही थे, जो गौर-भक्तों में ‘निमाई के भाई निताई’ के नाम से पुकारे जाते हैं। पाठकों को इनका परिचय अगले अध्याय में मिलेगा। |