श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
प्रभु तो अकिंचनप्रिय हैं, निष्किंचन बनने पर ही उनकी कृपा की उपलब्धि हो सकती है। तुम्हारे भाव पूरे निष्किंचन भक्त के-से हैं। जब तुम सच्चे हृदय से निष्किंचन बन गये तब फिर तुम्हें श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति में देर न होगी। कल गंगा-स्नान के बाद तुम्हें प्रभु की पूर्ण कृपा का अनुभव होने लगेगा।’ प्रभु की ऐसी बात सुनकर गदाधर की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वे रात्रि भर प्रेम में मग्न होकर आनन्दाश्रु बहाते रहे, वे एक-एक घड़ी को गिनते रहे कि कब प्रातःकाल हो और कब मुझे प्रेम प्राप्त हो। प्रतीक्षा में उनकी दशा पागलों की-सी हो गयी। वे कभी तो उठकर बैठ जाते, कभी खड़े होकर नृत्य ही करने लगते। कभी फिर लेट जाते और कभी आप-ही-आप कुछ सोचकर जोरों से हँसने लगते। प्रभु उनकी दशा देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए। प्रातःकाल गंगा-स्नान करते ही वे आनन्द में विभोर होकर नृत्य करने लगे। वे प्रेमासव को पीकर उन्मत्त-से प्रतीत होते थे, मानो उन्हें उस मधुमय मनोज्ञ-मदिरा का पूर्णरूप से नशा चढ़ गया हो। उन्होंने प्रेमरस में निमग्न हुए अलसाने-से नेत्रों से प्रभु की ओर देखकर उनके पाद-पद्मों में प्रणाम किया और कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘प्रभो! आपने इस अधम पापी को भी प्रेम-प्रदान करके अपने पतितपावन पुण्य नाम का यथार्थ परिचय करा दिया। आपकी कृपा जीवों पर सदा अहैतु की ही होती है। मुझ साधनहीन को भी दुस्साध्य प्रेम की परिधि तक पहुँचा दिया। आपको सब सामर्थ्य है। आप सब कुछ कर सकते हैं। प्रभु ने उनकी ऐसी दशा देखकर अधीरता के साथ कहा- ‘गदाधर! कृपालु श्रीकृष्ण ने तुम्हारे ऊपर कृपा कर दी, अब तुम उनसे मेरे लिये भी प्रार्थना करना।’ गदाधर ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- ‘प्रभो! मैं तो आपको ही इसका कारण समझता हूँ। इस प्रेम को आपकी ही दया का फल समझता हूँ, आपसे भी भिन्न कोई दूसरे कृष्ण हैं, इसका मुझे पता नहीं। यह कहते-कहते गदाधर प्रेम में विह्वल होकर रुदन करने लगे। शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी ने भी गदाधर की ऐसी दशा देखी। उनके अन्तःकरण में भी प्रेम-प्राप्ति की उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी। वे भी गदाधर की भाँति अपने-आपको भूलकर प्रेम में उन्मत्त होना चाहते थे। उनका हृदय भी प्रेमासव को पान करने के लिये अधीर हो उठा। दूसरे दिन वे भिक्षा करके आ रहे थे। रास्ते में गंगा जाते हुए प्रभु उन्हें मिल गये। प्रभु को देखते ही वे वयोवृद्ध ब्रह्मचारी उनके पैरों में लिपट गये। प्रभु ने संकोच प्रकट करते हुए कहा- ‘मैं आपके पुत्र के समान हूँ। आपने बाल्यकाल से ही पिता की भाँति मेरा लालन-पालन किया है और गोद में लेकर प्रेमपूर्वक खिलाया है। आप यह क्या अनर्थ कर रहे हैं, क्यों मेरे ऊपर पाप चढ़ा रहे हैं?’ |