श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
शरीर के सम्पूर्ण रोम बिलकुल खड़े हो गये। वे मूर्च्छित दशा में ही इस श्लोक को पढ़ने लगे- प्रभु इस श्लोक को गद्गद-कण्ठ से बार-बार पढ़ते और फिर बेहोश हो जाते। थोड़ा होश आने पर फिर इसे ही पढ़ने लगते। जैसे-तैसे भक्तों ने प्रभु को श्लोक पढ़ने से रोका और वे थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हो गये। इस प्रकार उनकी ऐसी दशा देखकर सभी उपस्थित भक्त अश्रु-विमोचन करने लगे, यों वह पूरी रात्रि इसी प्रकार संकीर्तन और सत्संग में ही व्यतीत हुई। इस प्रकार श्रीवास पण्डित के घर नित्य ही कीर्तन का आनन्द होने लगा। रात्रि में जब मुख्य-मुख्य भक्त एकत्रित हो जाते, तब घर के किवाड़ भीतर से बंद कर दिये जाते और फिर कीर्तन आरम्भ होता। कीर्तन में ढोल, करताल, मृदंग, मजीरा आदि सभी वाद्य लय और स्वर के साथ बजाये जाते थे। प्रभु सभी भक्तों के बीच में खड़े होकर नृत्य करते थे। अब इनका नृत् बहुत ही मधुर होने लगा। सभी भक्त आनन्द के आवेश में आकर अपने आपे को भूल जाते और प्रभु के साथ नृत्य करने लगते। प्रभु के शरीर में स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवर्ण्य तथा प्रलय आदि सभी सात्त्विक भावों का उदय होता। भक्त इनके अद्भुत भावों को देखकर मुग्ध हो जाते और भावावेश में आकर खूब जोरों से संकीर्तन करने लगते। सभी सहृदय थे, सभी का चित्त प्रभु से मिलने के लिये सदा छटपटाता रहता था, किसी के भी मन में मान-सम्मान तथा दिखावेपन के भाव नहीं थे। सभी के हृदय शुद्ध थे, ऐसी दशा में आनन्द का पूछना ही क्या है? वे सभी स्वयं आनन्दस्वरूप ही थे। भक्त परस्पर में एक-दूसरे की वन्दना करते, कोई-कोई प्रेम में विह्वल होकर प्रभु के पैरों को ही पकड़ लेते। बहुत-से परस्पर ही पैर पकड़-पकड़ रुदन करते। इस प्रकार सभी प्रेममय कृत्यों से श्रीवास पण्डित का घर प्रेम-पयोधि बन गया थ। उस प्रेमार्णव में प्रवेश करते ही प्रत्येक प्राणी प्रेम में पागल होकर स्वतः ही नृत्य करने लगता था। वहाँ प्रभु के संसर्ग में पहुँचते ही सभी संसारी विषय एकदम भूल जाते थे। भक्तों का हृदय स्वयमेव तड़फड़ाने लगता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे करुणा के सिन्धो! हे अनाथों के एकमात्र बन्धो! हे रहे! इन व्यर्थ के दिनों को, जिनमें कि तुम्हारे दर्शनों से वंचित रहा हूँ, हे नाथ! हे ब्रजनाथ! मैं किस प्रकार व्यतीत करूँ? कृष्ण्कर्णामृत 41