श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी42. अद्वैताचार्य और उनका सन्देह
भगवान की भक्तवत्सलता का स्मरण करके वे हिचकियाँ भर-भरकर रो रहे थे। इनकी ऐसी दशा देखकर अन्य वैष्णवों की आँखों में से भी आँसू निकलने लगे। सभी का हृदय प्रेम से भर आया। सभी वैष्णवों के इस भावी उत्कर्ष का स्मरण करके आनन्दसागर में गोता लगाने लगे। इस प्रकार बहुत-सी बातों होने के अनन्तर सभी वैष्णव अपने-अपने घरों को चले गये। इधर महाप्रभु की दशा अब और भी अधिक विचित्र होने लगी। उन्हें अब श्रीकृष्ण-कथा और वैष्णवों के सत्संग के अतिरिक्त दूसरा विषय रुचिकर ही प्रतीत नहीं होता था, वे सदा गदाधर या अन्य किसी भक्त के साथ भगवच्चर्चा ही करते रहते थे। एक दिन प्रभु ने गदाधर पण्डित से कहा- ‘गदाधर! आचार्य अद्वैत परम भागवत वैष्णव हैं, वे ही नवद्वीप के भक्त वैष्णवों के शिरोमणि और आश्रयदाता हैं, आज उनके यहाँ चलकर उनकी पद-रज से अपने को पावन बनाना चाहिये।’ प्रभु की ऐसी इच्छा जानकर गदाधर उन्हें साथ लेकर अद्वैताचार्य के घर पर पहुँचे। उस समय सत्तर वर्ष की अवस्था वाले वृद्ध आचार्य बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ तुलसी-पूजन कर रहे थे। आचार्य के सिर के सभी बाल श्वेत हो गये थे। उनके तेजोमय मुखमण्डल पर एक प्रकार की अपूर्व आभा विराजमान थी, वे अपने सिकुड़े हुए मुख से शुद्धता के साथ गम्भीर स्वर में स्तोत्र पाठ कर रहे थे। मुझे से भगवान की स्तुति के मधुर श्लोक निकल रहे थे और आँखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी। उन परम भागवत वृद्ध वैष्णव के ऐसे अपूर्व भक्तिभाव को देखकर प्रभु प्रेम में गद्गद हो गये। उन्हें भावावेश में शरीर की कुछ भी सुध-बुध न रही। वे मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर बेहोश होकर गिर पड़े। |