श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी42. अद्वैताचार्य और उनका सन्देह
प्रभु की प्राप्ति के लिये भाँति-भाँति के दाव-पेचों की उस अखाड़े में आलोचना तथा प्रत्यालोचना हुआ करती थी और सदा इस बात पर विचार होता कि कदाचाररूपी प्रबल शत्रु किसके द्वारा पछाड़ा जा सकता है? वैष्णव अपने बल का विचार करते और अपनी ऐसी दुर्दशा पर आँसू भी बहाते। महाप्रभु के नूतन भाव की बातों पर यहाँ भी वाद-विवाद होने लगे। अधिकांश वैष्णव इसी पक्ष में थे कि निमाई पण्डित को भक्ति का ही आवेश है, उनके हृदय में प्रेम का पूर्णरूप से प्रकाश हो रहा है, उनकी सभी चेष्टाएँ अलौकिक हैं, उनके मुख के तेज को देखकर मालूम पड़ता है कि वे प्रेम के ही उन्माद में उन्मादी बने हुए हैं, दूसरा कोई भी कारण नहीं है, किंतु कुछ भक्त इसके विपक्ष में थे। उनका कथन था कि निमाई पण्डित की भला एक साथ ऐसी दशा किस प्रकार हो सकती है? कल तक तो वे देवी, देवता और भक्त वैष्णव की खिल्लियाँ उड़ाते थे, सहसा उनमें इस प्रकार के परिवर्तन का होना असम्भव ही है। जरूर उन्हें वही पुराना वायुरोग फिर से हो गया है। उनकी सभी चेष्टाएँ पागलों की-सी हैं। उन सबकी बातें सुनकर श्रीमान अद्वैताचार्य जी ने सबको सम्बोधित करते हुए गम्भीरता के साथ कहा- भाई! आप लोग जिन निमाई पण्डित के सम्बन्ध में बातें कर रहे हो, उन्हीं के सम्बन्ध में मेरा भी एक निजी अनुभव सुन लो। तुम सब लोगों को यह बात तो विदित ही है कि मैं भगवान को प्रकट करने के निमित्त नित्य गंगा-जल से और तुलसी से श्रीकृष्ण का पूजन किया करता हूँ। गौतमी-तन्त्र के इस वाक्य पर मुझे पूर्ण विश्वास है- तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन वा। अर्थात ‘भगवान ऐसे दयालु हैं कि वे भक्ति से दिये हुए एक चुल्लू जल तथा एक तुलसी पत्र के द्वारा ही अपनी आत्मा को भक्तों के लिये दे देते हैं।’ इसी वाक्य पर विश्वास करके मैं तुम लोगों को बार-बार आश्वासन दिया करता था। कल श्रीमद्भगवद्गीता के एक श्लोक का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। इसी चिन्ता में रात्रि में मैं बिना भोजन किये ही सो गया था। स्वप्न में क्या देखता हूँ कि एक गौर वर्ण के तेजस्वी महापुरुष मेरे समीप आये और मुझसे कहने लगे- ‘अद्वैत! जल्दी से उठ, जिस श्लोक में तुझे शंका थी, उसका अर्थ इस प्रकार है। अब तेरी मनःकामना पूर्ण हुई। जिस इच्छा से तू निरन्तर गंगा-जल और तुलसी से मेरा पूजन करता था, तेरी वह इच्छा अब सफल हो गयी। हम अब शीघ्र ही प्रकाशित हो जायँगे। |