श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी41. भक्त-भाव
महाप्रभु उस समय श्रीतुलसी जी में जल देकर उनकी प्रदक्षिणा कर रहे थे। पिता के समान पूजनीय श्रीवास पण्डित को देखकर प्रभु उनकी ओर दौड़े और प्रेम के साथ उनके गले से लिपट गये। श्रीवास ने प्रभु के अंगों का स्पर्श किया। प्रभु के अंगों के स्पर्शमात्र से उनके शरीर में बिजली-सी दौड़ गयी। उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया। वे प्रेम में विभोर होकर एकटक प्रभु के मनोहर मुख की ही ओर देखते रहे। प्रभु ने उन्हें आदर से ले जाकर भीतर बिठाया और उनकी गोदी में अपना सिर रखकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। शचीमाता भी श्रीवास पण्डित को देखकर वहाँ आ गयीं और रो-रोक प्रभु की व्याधि की बातें सुनाने लगीं। पुत्र-स्नेह के कारण उनका गला भरा हुआ था, वे ठीक-ठीक बातें नहीं कह सकती थीं। जैसे-तैसे श्रीवास पण्डित को माता ने सभी बातें सुनायीं।
शचीदेवी! तुम बड़भागिनी हो, जो तुम्हारे भगवत्-भक्त पुत्र उत्पन्न हुआ। ये सब तो पूर्ण भक्ति के चिह्न हैं।’ श्रीवास पण्डित की ऐसी बातें सुनकर माता को कुछ-कुछ संतोष हुआ। अधीर भाव से प्रभु ने श्रीवास पण्डित से कहा- ‘आज आपके दर्शन से मुझे परम शान्ति हुई। सभी लोग मुझे वायुरोग ही बताते थे। मैं भी इसे वायुरोग ही समझता था और मेरे कारण विष्णुप्रिया तथा माता को जो दुःख होता था, उसके कारण मेरा हृदय फटा-सा जाता था। यदि आज आप यहाँ आकर मुझे इस प्रकार आश्वासन न देते तो मैं सचमुच ही गंगा जी में डूबकर अपने प्राणों का परित्याग कर देता। लोग मेरे सम्बन्ध में भाँति-भाँति की बातें करते हैं।’ श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘मेरा हृदय बार-बार कह रहा है, आपके द्वारा संसार का बड़ा भारी उद्धार होगा। आप ही भक्तों के एकमात्र आश्रय और आराध्य बनेंगे। आपकी इस अद्वितीय और अलौकिक मादकता को देखकर तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अखिलकोटि ब्रह्माण्डनायक अनादि पुरुष श्रीहरि ही अवनितल पर अवतीर्ण होकर अविद्या और अविचार का विनाश करते हुए भगवन्नाम का प्रचार करेंगे। मुझे प्रतीत हो रहा है कि सम्भवतया प्रभु इसी शरीर द्वारा उस शुभ कार्य को करावें।’ प्रभु ने अधीरता के साथ कहा- ‘मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। वैष्णवों के चरणों में मेरी अनुरक्ति हो, ऐसा आशीर्वाद दीजिये। श्रीकृष्ण-कीर्तन के अतिरिक्त कोई भी कार्य मुझे अच्छा ही न लगे, यही मेरी अभिलाषा है, सदा प्रभु-प्रेम में विकल होकर मैं रोया ही करूँ, यही मेरी हार्दिक इच्छा है।’ श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘आप ही ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे इस प्रकार का थोड़ा-बहुत पागलपन हमें भी प्राप्त हो सके। हम भी आपकी भाँति प्रेम में पागल हुए लोक-बाह्य बनकर उन्मत्तों की भाँति नृत्य करने लगें।’ इस प्रकार बहुत देर तक इन दोनों ही महापुरुषों में विशुद्ध अन्तःकरण की बातें होती रहीं। अन्त में प्रभु की अनुमति लेकर श्रीवास पण्डित अपने घर को चले आये। |