श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी41. भक्त-भाव
महाप्रभु की नूतनावस्था की नवद्वीप भर में चर्चा होने लगी। जितने मुख थे उतने ही प्रकार की बातें भी होती थीं। जिसके मन में जो आता वह उसी प्रकार की बातें कहता। बहुत-से तो कहते- ‘ऐसा पागलपन तो हमने कभी नहीं देखा।’ बहुत-से कहते- ‘सचमुच भाव तो विचित्र है, कुछ समझ में नहीं आता, असली बात क्या है। चेष्टा तो पागलों की-सी जान नहीं पड़ती। चेहरे की कान्ति अधिकाधिक दिव्य होती जाती है। उनके दर्शनमात्र से ही हृदय में हिलोरें-सी मारने लगती हैं, अन्तःकरण उमड़ने लगता है। न जाने उनकी आकृति में क्या जादू भरा पड़ा है। पागलों की भी कहीं ऐसी दशा होती है?’ कोई-कोई इन बातों का खण्डन करते हुए कहने लगते- ‘कुछ भी क्यों न हो, है तो यह मस्तिष्क का ही विकार। किसी प्रकार की हो, यह वातव्याधि के सिवाय और कुछ नहीं है।’ हम पहले ही बता चुके हैं कि श्रीवास पण्डित प्रभु के पूज्य पिता जी के परम स्नेही ओर सखा थे, उनकी पत्नी मालती देवी से शचीमाता का सखीभाव था। वे दोनों ही प्रभु को पुत्र की भाँति प्रेम करते थे। श्रीवास पण्डित को इस बात का हार्दिक दुःख बना रहता था कि निमाई पण्डित जैसे समझदार और विद्वान पुरुष भगवत-भक्ति से उदासीन ही बने हुए हैं, उनके मन में सदा यही बात बनी रहती कि निमाई पण्डित कहीं वैष्णव बन जायँ तो वैष्णव-धर्म का बेड़ा पार ही हो जाय। फिर वैष्णवों की आज की भाँति दुर्गति कभी न हो। प्रभु के सम्बन्ध में लोगों के मुखों से भाँति-भाँति की बातें सुनकर श्रीवास पण्डित के मन में परम कुतूहल हुआ। वे आनन्द और दुःख के बीच में पड़कर भाँति-भाँति की बातें सोचने लगे। कभी तो सोचते- ‘सम्भव है, वायुरोग ही उमड़ आया हो, इस शरीर का पता ही क्या है? शास्त्रों में इसे अनित्य और आगमापायी बताया है, रोगों का तो यह घर ही है।’ फिर सोचते- ‘लोगों के मुखों से जो मैं लक्षण सुन रहा हूँ, वैसे तो भगवत-भक्तों में ही होते हैं, मेरा हृदय भी भीतर-ही-भीतर किसी अज्ञात सुख का-सा अनुभव कर रहा है, कुछ भी हो चलकर उनकी दशा देखनी चाहिये।’ यह सोचकर वे प्रभु की दशा देखने के निमित्त अपने घर से चल दिये। |