श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी40. कृपा की प्रथम किरण
दूसरी बार श्लोक का सुनना था कि महाप्रभु जोरों से फूट-फूटकर रोने लगे। इनके रुदन को सुनकर आस-पास के बहुत-से आदमी वहाँ जुट आये। सभी प्रभु की ऐसी दशा देखकर चकित हो गये। आज तक किसी ने भी ऐसा प्रेम का आवेग किसी भी पुरुष में नहीं देखा था। प्रभु के कमल के समान दोनों नेत्रों की कोरों से श्रावण-भादों की वर्षा की भाँति शीतल अश्रुकण गिर रहे थे। वे प्रेम में विह्वल होकर कह रहे थे- ‘प्यारे कृष्ण! कहाँ हो? क्यों नहीं मुझे हृदय से चिपटा लेते। अहा, वे ब्राह्मण-पत्नियाँ धन्य हैं, जिन्हें नटनागर के ऐसे अद्भुत दर्शन हुए थे।’ यह कहते-कहते प्रभु ने प्रेमावेश में आकर रत्नगर्भ को जोरों से आलिंगन किया। प्रभु के आलिंगनमात्र से ही रत्नगर्भ उन्मत्त हो गये। अब तक तो एक ही पागल को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो रहे थे, अब तो एक ही जगह दो पागल हो गये। रत्नगर्भ कभी तो जोरों से हँसते, कभी रुदन करते और कभी प्रभु के पादपद्मों में पड़कर प्रेम की भिक्षा माँगते। कभी रोते-रोते फिर उसी श्लोक को पढ़ने लगते। रत्नगर्भ ज्यों-ज्यों श्लोक पढ़ते, प्रभु की वेदना त्यों-ही-त्यों अत्यधिक बढ़ती जाती। वे श्लोक के श्रवणमात्र से ही बार-बार मूर्च्छित होकर गिर पड़ते थे। रत्नगर्भ को कुछ भी होश नहीं था। वे बेसुध होकर श्लोक का पाठ करते और बीच-बीच में जोरों से रुदन भी करने लगते। जैसे-तैसे गदाधर पण्डित ने पकड़कर रत्नगर्भ को श्लोक पढ़ने से शान्त किया, तब कहीं जाकर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्यज्ञान हुआ। कुछ होश होने पर सभी मिलकर गंगा-स्नान करने गये और फिर सभी प्रेम में छके हुए-से अपने-अपने घरों को चले गये। इस प्रकार प्रभु की सर्वप्रथम कृपा-किरण के अधिकारी रत्नगर्भाचार्य ही हुए। उन्हें ही सर्वप्रथम प्रभु की असीम अनुकम्पा का आदि अधिकारी समझना चाहिये। |