श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी40. कृपा की प्रथम किरण
गोपों के ऐसी प्रार्थना करने पर वे ब्राह्मण उदासीन ही रहे। उन्होंने गोपों की बात पर ध्यान ही नहीं दिया। जब उन्होंने कई बार कहा, तब उन्होंने रूखाई के साथ कह दिया- ‘तुम लोग सचमुच बड़े मूर्ख हो, अरे, देवताओं के भाग में से हम तुम्हें कैसे दे सकते हैं? भाग जाओ, यहाँ कुछ खाने-पीने को नहीं है।’ ब्राह्मणों के इस उत्तर को सुनकर सभी गोप दुःखित-भाव से भगवान के समीप लौट आये और उदास होकर कहने लगे- ‘भैया! कनुआ! तैंने कैसे निर्दयी ब्राह्मणों के पास हमें भेज दिया। कुछ लेना-देना तो अलग रहा, वे तो हमसे प्रेमपूर्वक बोले भी नहीं। उन्होंने तो हमें फटकार बताकर यज्ञमण्डप से भगा दिया।’ गोपों की ऐसी बात सुनकर भगवान ने कहा- ‘वे कर्मठ ब्राह्मण हमारे दुःख को भला क्या कृपा की प्रथम किरण समझ सकते हैं। जो स्वयं स्वर्गसुख का लोभी है, उसे दूसरे के दुःख की क्या परवा। अब की तुम लोग उनकी स्त्रियों के समीप जाओ, उनका हृदय कोमल है, वे शरीर से तो वहाँ हैं, किंतु उनका अन्तःकरण मेरे ही समीप है। वे तुम लागों को जरूर कुछ-न-कुछ देंगी। तुम लोग हम दोनों भाइयों का नाम भर ले लेना।’ इस बात को सुनकर गिड़गिड़ाते हुए गोपों ने कहा- भैया कनुआ! तुम तेरे कहने से और तो सभी काम कर सकते हैं, किंतु हम जनाने में न जायँगे, तू हमें स्त्रियों के पास जाने के लिये मत कहे।’ भगवान ने हँसते हुए उत्तर दिया- ‘अरे, मेरी तो जान-पहचान जनाने में ही है। मेरे नाम से तो वे ही सब कुछ दे सकती हैं। तुम लोग जाओ तो सही।’ भगवान की ब्राह्मण-पत्नियों से जान-पहचान पुरानी थी। बात यह थी कि मथुरा की मालिनें पुष्प चुनने के निमित्त नित्यप्रति वृन्दावन आया करती थीं। जब वे ब्राह्मणों के घरों में पुष्प देने जातीं तभी स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम के अद्भुत रूप-लावण्य का बखान करतीं और उनकी अलौकिक लीलाओं का भी गुणगान किया करतीं। उन्हें सुनते-सुनते ब्राह्मण-पत्नियों के हृदय में इन दोनों के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। वे सदा इनके दर्शनों के लिये छटपटाती रहती थीं। उनकी उत्सुकता आवश्यकता से अधिक बढ़ गयी थी। उनकी लालसा को पूर्ण करने के ही निमित्त भगवान ने यह लीला रची थी। जब भगवान ने कई बार जोर देकर कहा तब तो उदास मन से गोप ब्राह्मण-पत्नियों के पास पहुँचे और उसी प्रकार दीनता के साथ उन्होंने कहा- ‘हे ब्राह्मण-पत्नियो! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर बलदेव जी और श्री कृष्णचन्द्र जी बैठे हैं, वे दोनों ही बहुत भूखे हैं। यदि तुम्हारे पास कुछ खाने की वस्तु हो तो उन्हें जाकर दे आओ।’ ब्राह्मण-पत्नियों का इतना सुनना था कि वे प्रेम के कारण अधीर हो उठीं। |