श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी35. श्रीगयाधाम की यात्रा
नवद्वीप में ही मेरा हृदय तुम्हारी ओर स्वाभाविक ही खिंचा-सा जाता था। मुझसे लोग कहते- ‘निमाई पण्डित कोरे पोथी के ही पण्डित हैं, बड़े चंचल हैं, देवता तथा वैष्णवों की खिल्लियाँ उड़ाते हैं। आप उनहें अपना ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ सुनाकर क्या लाभ उठावेंगे?’ कोई-कोई तो यहाँ तक कहता- ‘अजी, ये तो पूरे नास्तिक हैं। वैष्णवों को छेड़ने में ही इन्हें मजा आता है।’ मैं उन सबकी बातें सुनता और चुप हो जाता। मेरा अन्तःकरण इन बातों को कभी स्वीकार ही नहीं करता था। मैं बार-बार यही सोचता था- ‘निमाई पण्डित- जैसे सरस, सरल, सहृदय और भावुक पुरुष, भक्तिहीन कभी हो नहीं सकते। इनके मुख का तेज ही इनकी भावी शक्ति का परिचय दे रहा है। आज आपके दर्शन के समय के भाव को देखकर मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। मैं कृतकृत्य हो गया। भगवत-दर्शन से जो आनन्द मिलता है, उसी आनन्द का मैं अनुभव कर रहा हूँ। मैं अपने आनन्द को प्रकट करने में असमर्थ हूँ।’ इतना कहते-कहते संन्यासी महाशय का गला भर आया। आगे वे कुछ और भी कहना चाहते थे, किन्तु कह नहीं सके। उनके नेत्रों में से अश्रुधारा अब भी पूर्ववत बह रही थी। संन्यासी महाराज की बातें सुनते-सुनते इन्हें कुछ चेतना हो गयी थी। इसलिये रूँधे हुए कण्ठ से कुछ अस्पष्ट स्वर में इन्होंने कहा- ‘प्रभो! आज मैं कृतार्थ हुआ। मेरी गया-यात्रा सफल हुई। मेरी असंख्यों पीढि़यों का उद्धार हो गया, जो यहाँ आने पर आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तीर्थ में श्राद्ध करने पर तो उन्हीं पितरों की मुक्ति होती है, जिनके निमित्त श्राद्ध-तर्पणादि कर्म किये जाते हैं, किन्तु आप-जैसे परम भागवत वैष्णवों के दर्शन से तो करोड़ों पीढ़ियों के पितर स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं। सब लोगों को आपके दर्शन दुर्लभ हैं। जिनका भाग्योदय होता है, उन्हीं को आपके दर्शन होते हैं।’ यह कहते-कहते इन्होंने फिर से संन्यासी महाशय के चरण पकड़ लिये। संन्यासी जी ने हठपूर्वक अपने चरण छुड़ाये और इन्हें प्रेम वाक्यों से आश्वासन दिया। पाठक समझ ही गये होंगे ये संन्यासी महाशय कौन हैं। ये वे ही भक्ति-बीज के अंकुरित करने वाले श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी जी के सर्वप्रधान प्रिय शिष्य श्री ईश्वरपुरी हैं, जिन्हें अन्तिम समय में गुरुदेव अपना सम्पूर्ण तेज प्रदान करके इस संसार से तिरोहित हो गये थे। नवद्वीप के प्रथम मिलन में ही ये निमाई पण्डित के अलौकिक तेज और अद्वितीय रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह गये थे। इन्हें इस प्रकार देखते देखकर निमाई पण्डित ने हँसकर कहा था- ‘आज हमारे घर ही भिक्षा कीजियेगा, तभी हमें दिनभर भलीभाँति देखते रहने का सुअवसर प्राप्त हो सकेगा।’ |