श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी35. श्रीगयाधाम की यात्रा
असंख्य लोगों की भीड़ थी, हजारों आदमी पाद-पद्मों के दर्शन कर रहे थे और बीच-बीच में जय-घोष करते जाते थे। पण्डा लोग उनसे भेंट चढ़ाने का आग्रह कर रहे थे। बार-बार पाद-पद्मों का पुण्य-माहात्म्य सुनाया जा रहा था। पाद-पद्मों का माहात्म्य सुनते ही निमाई पण्डित आत्मविस्मृत हो गये। उन्हें शरीर का होश नहीं रहा। शरीर थर-थर काँपने लगा, युगल अरुण ओष्ठ कोमल पल्लव की भाँति हिलने लगे। आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगी। उनके चेहरे से भारी तेज निकल रहा था। वे एकटक पाद-पद्मों की ओर निहार रहे थे। वे कहाँ खड़े हैं, उनके पास कौन है, किसने उन्हें स्पर्श किया, इन सभी बातों का उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे संज्ञाशून्य-से होकर काँप रहे हैं, उनका शरीर उनके वश में नहीं है, वे मूर्च्छित होकर गिरने वाले ही थे कि सहसा एक तेजस्वी संन्यासी का सहारा लगने से वे गिरने से बच गये। उनके साथियों ने उन्हें पकड़ा और भीड़ से हटाकर जल्दी से बाहर ले गये। बाहर पहुँचकर उन्हें कुछ होश आया और वे निद्रा से उठे मनुष्य की भाँति अपने चारों ओर आँखें उठा-उठाकर देखने लगे। सहसा उनकी दृष्टि एक लम्बे-से तेजस्वी संन्यासी पर पड़ी। वे उन्हें देखकर एक साथ चौंक उठे, उनके आनन्द का वारापार नहीं रहा। इन्होंने दौड़कर संन्यासी जी के चरण पकड़ लिये। अपनी आँखों से अश्रुविमोचन करते हुए संन्यासी ने इन्हें उठाकर गले से लगा लिया। इनके स्पर्शमात्र से संन्यासी महाशय बेहोश हो गये। दोनों ही आत्मविस्मृत थे। दोनों को ही शरीर का होश नहीं था, दोनों ही प्रेम में विभोर होकर अश्रुविमोचन कर रहे थे। यात्री इन दोनों के ऐसे अलौकिक प्रेम को देखकर आनन्द-सागर में गोते खाने लगे। बहुत-से लोग रास्ता चलते-चलते खड़े हो गये। चारों ओर से लोगों की भीड़ लग गयी। कुछ काल में संन्यासी को कुछ-कुछ चेतना हुई। उन्होंने बड़े ही प्रेम से इनका हाथ पकड़कर एक ओर बिठाया और अत्यन्त प्रेमपूर्ण वाणी से वे कहने लगे- ‘निमाई पण्डित! आज मेरा भाग्योदय हुआ जो सहसा मुझे तुम्हारे दर्शन हो गये। |