श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी35. श्रीगयाधाम की यात्रा
नाहं तथाग्नि यजमानहविर्विताने अर्थात भगवान कहते हैं ‘मेरे अग्नि और ब्राह्मण ये दो मुख हैं, इनमें ब्राह्मण ही मेरा श्रेष्ठ मुख है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण कर्मों को मेरे ही अर्पण कर दिया है और जो सदा सन्तुष्ट ही रहते हैं, ऐसा ब्राह्मण जो टपकते हुए घृत से व्याप्त सुस्वादु अन्न के व्यंजनों को खाता है, उसके प्रत्येक ग्रास के साथ मैं ही उस अन्न के रस का आस्वादन करता हूँ। उस ब्राह्मण की तृप्ति से जितना मैं तुष्ट होता हूँ, उतना यज्ञ में अग्निद्वारा, यजमान के अर्पण किये हुए कवि आदि से नहीं होता।’ ‘जिन ब्राह्मणों की ऐसी महिमा साक्षात भगवान ने अपने श्रीमुख से वर्णन की है, उन्हीं का पादोदक पान करने से मेरा यह रोग शमन हो सकेगा।’ यह सुनकर एक सरल- से विद्यार्थी ने प्रश्न किया- ‘गुरुजी! जो ब्राह्मण नहीं हैं केवल ब्रह्मबन्धु हैं[1] उनका तो इतना सत्कार नहीं करना चाहिये। वे तो केवल काष्ठ की हस्ती के समान नाममात्र के ही ब्राह्मण हैं, जैसे काष्ठ के हाथी से हाथीपने का कोई भी काम नहीं चलने का, उसी प्रकार जो अपने धर्म-कर्म से हीन है, जिसने विद्या प्राप्त नहीं की, उस नाममात्र के ब्राह्मण का हम आदर क्यों करें?’ निमाई पण्डित ने थोड़ी देर सोचने के अनन्तर कहा- ‘तुम्हारा कथन एक प्रकार से ठीक ही है, जो अपने धर्म-कर्म से रहित है, वह तो दूध न देने वाली वन्ध्या गौ के समान है, उससे संसारी स्वार्थ कोई सध नहीं सकता। फिर भी जो सभी कामों को सकाम भाव से नहीं करते हैं, जो श्रद्धा के साथ शास्त्रों की आज्ञानुसार अपने को ही सुधारने का सदा प्रयत्न करते रहते हैं, वे दूसरों के दोषों के प्रति उदासीन रहते हैं। हम दोषदृष्टि से देखना आरम्भ करेंगे तब तो संसार में एक भी मनुष्य दोष से रहित दृष्टिगोचर नहीं होगा। संसार ही दोष-गुण के सम्मिश्रण से बना है! इसलिये अपनी बुद्धि को संकुचित बनाकर गौ की सेवा करने में यह बुद्धि रखना ठीक नहीं कि जो गौ अधिक दूध देगी हम उसी की सेवा करेंगे। जो दूध नहीं देती, उससे हमें क्या मतलब? ऐसी बुद्धि रखने से तो विचारों में संकुचितता आ जायगी। तुम तो शास्त्र की आज्ञा समझकर गौमात्र में श्रद्धा रखो। यह तो स्वाभाविक ही होगा कि जो गौ सुशील, सुन्दर तथा दुधारी होगी, उसकी सभी लोग इच्छा-अनिच्छापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करेंगे और अश्रद्धालु पुरुषों को भी सुमिष्ट दूध के लालच से प्रभावान्वित होकर ऐसी गौ की सेवा करते हुए देखा गया है, किन्तु यह सर्वश्रेष्ठ पक्ष नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात केवल नाममात्र के ही ब्राह्मण हैं, बस, जिन्होंने ब्राह्मण-वंश में जन्म ही भर ग्रहण किया है