श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी33. प्रकृति-परिवर्तन
अब निमाई पण्डित के भी प्रकृति-परिवर्तन का समय आया। निमाई परम भावुक थे, यदि सचमुच इनके हृदय में एक साथ ही प्रबल भावुकता की भारी बाढ़ आती, तो चाहे इनका शरीर कितना भी बलवान क्यों नहीं था, वह उसका सहन कभी नहीं कर सकता। इसलिये इनकी भावुकता का उत्तरोत्तर विकास हुआ और अन्त में तो वे शरीर को एकदम भूलकर समुद्र में ही कूद पड़े। इनके जीवन में प्रेम के जैसे उत्तरोत्तर अद्वितीय भाव प्रकट हुए हैं, वैसे भाव संसार का इतिहास खोजने पर भी किसी प्रकटरूप से उत्पन्न हुए महापुरुष के जीवन में शायद ही मिलें! किसी के जीवन में क्या, बहुतों के जीवन में ये भाव प्रकट हुए होंगे, किन्तु वे संसार की दृष्टि से दूर जाकर प्रकट हुए होंगे, संसारी लोगों को उन भावों का पता नहीं चैतन्य के जीवन के भाव तो भक्तों ने प्रत्यक्ष देखे और उनके समकालीन लेखकों ने यथासाध्य उनका वर्णन करने की चेष्टा भी की है, किन्तु वे भाव तो अवर्णनीय हैं। संसारी भाषा इन अलौकिक भावों का वर्णन कर ही कैसे सकती है? सहसा एक दिन निमाई पण्डित रास्ता चलते-चलते पुस्तक फेंककर अपने घर की ओर भाग पड़े। रास्ते के सभी लोग डर गये। इनकी सूरत विचित्र ही बन गयी थी। घर पहुँचकर इन्होंने घर के सभी बर्तनों को आँगन में निकाल-निकालकर फोड़ना प्रारम्भ कर दिया। माता अवाक होकर इनकी ओर देखने लगीं। उनकी हिम्मत न हुई कि निमाई को ऐसा करने से रोकें। ये अपनी धुन में मस्त थे। किसी भी चीज की परवा नहीं करते। जो भी चीज मिल जाती उसे ही नष्ट करते। पानी को उलीचते, अन्न को फेंकते और वस्त्रों को बीच से फाड़ देते थे। माता बाहर जाकर आस-पास के लोगों को बुला लायीं। लोगों ने इन्हें इस काम से हटाने की चेष्टा की, किन्तु जो भी इनकी ओर जाता, उसे ही ये मारने के लिये दौड़ते। इसलिये किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। जैसे-तैसे लोगों ने इन्हें हटाकर शय्या पर सुलाया। चारों ओर से विद्यार्थी तथा इनके स्नेही इनकी शय्या को घेरकर बैठ गये। अब ये निरन्तर पागलों की भाँति बकने लगे। लोगों से कहते- ‘हम साक्षात विष्णु हैं, हमारी पूजा करो। संसार में हम ही एकमात्र वन्दनीय तथा पूजनीय हैं। तुम लोग निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन किया करो। संसार में श्रीकृष्ण का ही नाम सार है और सभी वस्तुएँ असार हैं। इस प्रकार ये न जाने क्या-क्या कहते रहे।’ लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भाँति-भाँति के अनुमान लगाते। कोई कहता- ‘भूतव्याधि है।’ कोई कहता- ‘किसी डाकिनी-शाकिनी का प्रकोप है।’ कोई-कोई उपेक्षा की दृष्टि से कहता- ‘अजी, बहुत बकवाद का यही तो फल होता है, दिनभर शास्त्रार्थ करके विद्यार्थियों के साथ मगजपच्ची करके तथा लोगों को छेड़कर बका ही तो करते थे। इन्हें कभी किसी ने चुपचाप तो देखा ही नहीं था। उसी का यह फल है, पागलपन है। मस्तिष्क का विकार है। गर्मी बढ़ गयी है और कुछ नहीं है।’ |