श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी33. प्रकृति-परिवर्तन
जिनसे भगवान को कुछ काम कराना होता है, वे उस वेग को पूर्णरीति से सहन करने में समर्थ होते हैं, किन्तु शरीर पर उसका कुछ-न-कुछ असर पड़ना तो स्वाभाविक ही है, इसलिये उनके शरीर में या तो वायुरोग हो जाता है या अतिसार। बहुधा इन दो भयंकर रोगों के द्वारा ही उस भाव का शमन हो सकता है। संसारी लोगों को ये रोग प्रायः चालीस-पचास वर्ष की अवस्था के बाद हुआ करते हैं, किन्तु जिन लोगों के शरीर में प्रबल भावुकता के उदय होने के उद्वेग में ये रोग होते हैं, उनके लिये कोई नियम नहीं, कभी हो जाय। असल में उनके ये रोग साधारण लोगों के रोग की भाँति यथार्थ रोग नहीं होते, किन्तु वे रोग-से ही प्रतीत होते हैं और भावों के शमन होने पर आप ही शान्त हो जाते हैं। परमहंस रामकृष्णदेव को युवावस्था में ही यह उद्वेग उत्पन्न हुआ। किसी ने उसे वायुरोग, किसी ने मस्तिष्क रोग और किसी ने वीर्योन्मादरोग बताया। उनके परम भक्त मथुरा बाबू तो चिकित्सकों के कहने से उन्हें वेश्याओं तक के यहाँ ले गये, किन्तु उन्हें उन्माद या वायुरोग हो तब तो। वहाँ भी वे छोटे बालक की भाँति क्रीड़ा करते रहे। सालों वे अतिसार के भयंकर रोग से पीड़ित बने रहे। उनके इस भाव को एक ब्राह्मणी ने ही समझा। पीछे से उनके बहुत-से भक्त भी समझ गये। चिकित्सक इन्हें अन्त तक वायुरोग बताते रहे और बोलने से मना करते रहे, किन्तु इन्होंने शरीर को टिका ही इसलिये रखा था, चिकित्सकों के मना करने पर भी धारा प्रवाह बोलते रहे, अन्त में गले में फोड़ा-सा हुआ और उसी की भयंकर वेदना में महीनों बिताकर वे इस नश्वर शरीर को त्याग गये। गले के फोड़े को चिकित्सक लोग अधिक बोलने का विकार बताते, उसके कारण इतनी पीड़ा होती कि तोले भर दूध पीने में भी उन्हें महाकष्ट होता था, किन्तु इस अवस्था में भी वे भक्तों को उपदेश तो निरन्तर करते ही रहे। चिकित्सकों के बार-बार जोर देकर मना करने पर वे कह देते- ‘अब इस शरीर का बनेगा ही क्या? इससे जिसका जितना भी उपकार हो सके उतना ही उत्तम है।’ क्योंकि वे शरीर के प्राकृतिक स्वभाव से एकदम ऊँचे उठ गये थे। |