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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
2. इष्ट-प्रार्थना
मैं हार्यो करि जतन बहुत विधि अतिसै प्रबल अजै।
‘तुलसिदास’ बस होय तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै।।
प्यारे प्रभु! जरा बरज दो। एक क्षण को भी तुम्हारे प्रेमसागर में डूब जाय तो यह जीवन सार्थक हो जाय। यह कलेवर निहाल हो जाय। जीभ नाना प्रकार के रसों में इतनी आसक्त है, कि इसे तुम्हारे नाम में मजा ही नहीं आता। निरन्तर स्वादु-स्वादु पदार्थों की ही वान्छा करती रहती है। हठात इसे लगाता हूँ, किन्तु बेमन का काम भी कभी ठीक होता है? नाथ! अब तो बस तुम्हारा ही आश्रय है।
तुम्हारे प्रति अनुराग नहीं, विषयों से वैराग्य नहीं, जीवन में यथार्थ त्याग नहीं। जीवन क्या है, पूरा जंजाल बना हुआ है। चाहता हूँ, अनन्य होकर तुम्हारा ही चिन्तन करूँ, नहीं कर सकता। इच्छा होती है, जीवन में यथार्थ त्याग हो, नहीं होता। सोचता हूँ, संसार से उपराम होऊँ, हो नहीं सकता। परिग्रह से जितना ही दूर होने की इच्छा करता हूँ, उतना ही अधिक संग्रही बनता जाता हूँ। तुम्हारे चरणों से पृथक होने से ऐसा होना अवश्यम्भावी है।
शरीर को सुखाया। तितिक्षा का ढोंग रचा। ध्यान, जप, योग, आसन सभी तरफ मन को लगाया, किन्तु तुम्हारी यथार्थता का पता नहीं चला। तुम्हारे प्रेम में पागल न बन सका। हिर-फिरकर वही संसार भाँति-भाँति का रूप रखकर सामने आ गया। तुम छिपे ही रहे। अपने ऊपर अब विश्वास नहीं रहा, यह शरीर रोगों का अड्डा बन गया है। नेत्रों की ज्योति अभी से क्षीण हो गयी, दन्त खोखले हो गये। पाचन-शक्ति कम हो गयी, वायु के प्रकोप से शरीर के सभी अवयव वेदनामय बन गये, फिर भी यथार्थ जीवन लाभ नहीं कर सका। अब सब तरफ से हारकर बैठ गया हूँ, अब तो एक यही बात सोच ली है, जो तुम कराओगे करूँगा, जहाँ रखोगे रहूँगा और जैसा नाच नचाओगे वैसा नाचूँगा। तो भी प्यारे! इस जीवन में एक ही साध है और वह साध अन्त तक बनी ही रहेगी। एक बार सबको भूलकर तुम्हारे चरणों में पागल की भाँति लोट-पोट हो जाऊँ, यही एक हार्दिक वासना है।
अहा! ये सभी सांसारिक वासनाएँ जब क्षय हो जायँगी, जब एकमात्र तुम ही याद आते रहोगे, सोते-जागते आठों पहर तुम्हारी मनोहर मुरली की मीठी-मीठी ध्वनि ही सुनायी देती रहेगी, तुम्हारी उस मन्द-मन्द मुस्कान में ही चित्त सदा गोते लगाता रहेगा और मैं सभी प्रकार से लज्जा, संकोच तथा भय को त्याग कर पागलों का-सा नृत्य करता रहूँगा, तब यह जीवन धन्य हो जायगा, यह शरीर सार्थक हो जायगा। नाथ! मुझे रोने का वरदान दो, रोता रहूँ, पागल की भाँति सदा रोऊँ, उठते-बैठते, सोते-जागते सदा इन आँखों में आँसू ही भरे रहें, रोना ही मेरे जीवन का व्यापार हो। खूब रोऊँ, हर समय रोऊँ, हर जगह रोऊँ और जोर से रोते-रोते चैतन्यदेव की भाँति चिल्ला उठूँ-
हे देव! हे दयति! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करूणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा! हा! कदानु भवितासि पदं दृशोर्मे।।
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