श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी30. दिग्विजयी का वैराग्य
महापुरुषों के संसर्ग में जाने से कुछ तो अपने व्यर्थ के कर्मों पर पश्चात्ताप होगा ही, इसीलिये भगवती श्रुति बार-बार कहती है ‘कृतं स्मर’ ‘कृतं स्मर’ किए हुए का स्मरण करो। असली पश्चात्ताप तो सर्वस्व के नष्ट हो जाने पर या अपनी अत्यन्त प्रिय वस्तु के न प्राप्त होने पर ही होता है। जिन्हें परम सुख की इच्छा है और संसारी पदार्थों में उसका अभाव पाते हैं, वे संसारी सुखों में लात मारकर असली सुख की खोज में पहाड़ों की कन्दराओं में तथा एकान्त स्थानों में रहकर उसकी खोज करने लगते हैं उन्हीं को विरागी कहते हैं। दिग्विजयी पण्डित कैशव काश्मीरी की हार्दिक इच्छा थी कि मैं संसार में सर्वोत्तम ख्याति लाभ करूँ, भारतवर्ष में मैं ही सर्वश्रेष्ठ कवि और पण्डित समझा जाऊँ। इसी के लिये उन्होंने देश-विदेशों में घूमकर इतनी इज्जत-प्रतिष्ठा और धूम-धाम की सामग्री एकत्रित की थी, आज एक छोटी उम्र के युवक अध्यापक ने उनकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा धूल में मिला दी। उनकी इतनी ऊँची आशा पर एकदम पानी फिर गया। उनकी इतनी जबरदस्त ख्याति अग्नि में जलकर खाक हो गयी, इससे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। गंगा जी से लौटकर वे चुपचाप आकर पलँग पर पड़ रहे। साथियों ने भोजन के लिये बहुत आग्रह किया किन्तु तबीयत खराब होने का बहाना बताकर उन्होंने उन लोगों से अपना पीछा छुड़ाया। वे बार-बार सोचते थे- ‘आज मुझे हो क्या गया? बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान मेरे सामने बोल नहीं सकते थे, अच्छे-अच्छे शास्त्री और आचार्य मेरे प्रश्नों का उत्तर देना तो अलग रहा, यथावत प्रश्न को समझ भी नहीं सकते थे, पर आज गंगा-किनारे उस युवक अध्यापक के सामने मेरी एक भी न चली। मेरी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये, उसकी एक बात का भी मुझसे उत्तर देते नहीं बना। मेरी समझ में नहीं आता यह बात क्या है?’ उन्हें बार-बार सरस्वती देवी के ऊपर क्रोध आने लगा। वे सोचने लगे- ‘मैंने कितने परिश्रम से सरस्वती मन्त्र का जाप किया था, सरस्वती ने भी प्रत्यक्ष प्रकट होकर मुझे वरदान दिया था, कि मैं शास्त्रार्थ में सदा तुम्हारी जिह्वा पर निवास किया करूँगी, आज उसने अपना वचन कैसे झूठा कर दिया, आज वह मेरी जिह्वा पर से कहाँ चली गयी?’ इसी अधेड़-बुन में वे उसी देवी के मन्त्र का जप करने लगे और जप करते-करते ही सो गये। स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है। |