श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी29. दिग्विजयी का पराभव
(2) दूसरा गुण है ‘पुनरुक्तिवदाभास’। पुनरुक्तिवदाभास उस गुण को कहते हैं जो सुनने में तो पुनरुक्ति प्रतीत हो, किन्तु पुनरुक्ति न होकर दोनों पदों के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हों। जैसे श्लोक में ‘श्री-लक्ष्मी-इव’ यह पद आया है। सुनने में तो श्री और लक्ष्मी दोनों समान अर्थवाचक ही प्रतीत होते हैं किन्तु यहाँ श्री और लक्ष्मी का अलग-अलग अर्थ न करके ‘श्रीसे युक्त लक्ष्मी’ ऐसा अर्थ करने से सुन्दर अर्थ भी हो जाता है और साथ ही ‘पुनरुक्तिवदाभास’ गुण भी प्रकट होता है। (3) तीसरा गुण है ‘अर्थालंकार’। अर्थालंकार उसे कहते हैं, जिसमें अर्थ के सहित उपमा का प्रकाश किया हो। जैसे श्लोक में ‘लक्ष्मीः इव’ अर्थात लक्ष्मी की तरह कहकर गंगा जी को लक्ष्मी की उपमा दी गयी है। इस कारण बड़ा ही मनोहर ‘अर्थालंकार’ है। (4) चौथा एक और भी ‘अर्थालंकार’ गुण है, उसका नाम है ‘विरोधाभासार्थालंकार’। विरोधाभासरूपी अर्थालंकार उसे कहते हैं कि उपमा-उपमेय एक-दूसरे से बिलकुल विभिन्न गुणवाले हों, जैसे- अम्बुजमम्बुनि जातं क्वचिदपि न जातमम्बुजादम्बु। अर्थात जल से तो कमलों की उत्पत्ति होती हुई देखी गयी है, किन्तु कमल से जल कभी उत्पन्न नहीं हुआ है, परन्तु भगवान की लीला विचित्र ही है, उनके पाद-पद्मों से जगत्पावनी महानदी उत्पन्न हुई है। यहाँ कमल से जल की उत्पत्ति का विरोध है, किन्तु भगवान तो ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ सभी प्रकार से समर्थ हैं, इसलिये आपके श्लोक में ‘विष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा’ इस पद से विष्णु भगवान के चरण-कमलों से उत्पत्ति बताने से ‘विरोधाभासरूपी अर्थालंकार’ आ गया है। (5) पाँचवाँ एक और भी ‘अनुमान’ अलंकार है। श्लोक में साध्य वस्तु गंगाजी का महत्त्व वर्णन करना है। विष्णुपादोत्पत्ति उसका साधन बताकर बड़ा चमत्कारपूर्ण अनुमानालंकार सिद्ध हो जाता है अर्थात ‘विष्णुपादोत्पत्ति वाक्य ही अनुमानालंकार है।’ इस प्रकार पाँच गुणों को बताकर निमाई पण्डित चुप हो गये। सभी अनिमेषभाव से टकट की लगाये निमाई पण्डित की ही ओर देख रहे थे, उन्होंने ये सब बातें बडत्री सरलता और निर्भीकता के साथ कहीं थीं, दिग्विजयी का कलेजा भीतर-ही-भीतर खिंच-सा रहा था, वे उदासीनभाव से गंगाजी की सीढ़ी के घाट की ओर देख रहे थे, मानो वे कह रहे हैं, यह पत्थर यहाँ से हट जाय तो मैं इसमें समा जाऊँ। निमाई पण्डित के गुण बताने पर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। जैसे किसी शास्त्री पण्डित से कह दें आप थोड़ा-सा व्याकरण भी जानते हैं, जैसे उसे इस वाक्य से कोई विशेष प्रसन्नता न होकर और दुःख ही होगा, उसी प्रकार अपने काव्य को सर्वगुणसम्पन्न समझने वाले दिग्विजयी को इन पाँच गुणों के श्रवण से प्रसन्नता की जगह दुःख ही हुआ। उन्होंने कुछ चिढ़कर कहा- ‘अच्छा, ये तो गुण हो गये, अब तुम बता सकते हो तो इसके दोषों को भी बताओ।’ |