श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी29. दिग्विजयी का पराभव
विद्यार्थी तो मान-अपमान से दूर ही रहते हैं, उन्हें मान-अपमान की कुछ भी परवा नहीं रहती। चाहे विद्यार्थी सभी शास्त्रों को पढ़ चुका हो, जब तक वह पाठशाला में विद्यार्थी बना है, तब तक वह छोटे-से-छोटे विद्यार्थी से भी समानता का ही बर्ताव करेगा। विद्यार्थी-विद्यार्थी सब एक-से। इसीलिये विद्यार्थियों से भी किसी को उद्वेग नहीं होता। इसी कारण विद्यार्थियों के आग्रह करने पर महामानी लोक विख्यात दिग्विजयी पण्डित भी विद्यार्थियों के समीप ही बैठ गये। निमाई पण्डित ने अपना वस्त्र उनके लिये बिछा दिया। दिग्विजयी के सुखपूर्वक बैठ जाने पर सभी विद्यार्थी चुप हो गये। सभी ने शास्त्रार्थ बन्द कर दिया। हँसते हुए दिग्विजयी बोले- ‘भाई, तुम लोग चुप क्यों हो गये, कुछ शास्त्र-चर्चा होनी चाहिये।’ इतने पर भी सब चुप ही रहे। सभी विद्यार्थी धीरे-धीरे निमाई के मुख की ओर देखने लगे। कुछ प्रसंग चलने के निमित्त दिग्विजयी ने निमाई पण्डित से पूछा- ‘तुम किस पाठशाला में पढ़ते हो?’ निमाई इस प्रश्न को सुनकर चुप हो गये, वे कुछ कहने ही को थे कि उनके समीप बैठे हुए एक योग्य छात्र ने कहा- ‘ये यहाँ के विख्यात अध्यापक निमाई पण्डित हैं।’ प्रसन्नता प्रकट करते हुए दिग्विजयी ने निःसंकोचभाव से उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘ओहो! निमाई पण्डित आपका ही नाम है? आपकी तो हमने बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। आप तो यहाँ के वैयाकरणों में सिरमौर समझे जाते हैं। हाँ, आप ही कोई व्याकरण की पंक्ति सुनाइये।’ हाथ जोड़े हुए नम्रतापूर्वक निमाई पण्डित ने कहा- ‘यह तो आप-जैसे गुरुजनों की कृपा है, मैं तो किसी योग्य भी नहीं। भला, आपके सामने मैं सुना ही क्या सकता हूँ, मैं तो आपके शिष्यों के शिष्य होने के योग्य भी नहीं। आपने संसार को अपनी विद्या-बुद्धि से दिग्विजय किया है। आपके कवित्व की बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। यह छात्र-मण्डली आपके कवित्व के श्रवण करने के लिये बड़ी उत्सुक हो रही है। कृपा करके आप ही अपनी कोई कविता सुनाने की कृपा कीजिये।’ यह सुनकर दिग्विजयी पण्डित हँसने लगे। पास के दो-चार विद्यार्थियों ने कहा- ‘हाँ, महाराज! हम लोगों की इच्छा को जरूर पूर्ण कीजिये। हम सभी लोग बहुत उत्सुक हैं आपकी कविता सुनने के लिये।’ अब तक दिग्विजयी को नदिया में अपनी अलौकिक प्रतिभा और लोकोत्तर कवित्व-शक्ति के प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त ही नहीं हुआ था। उसे प्रकट करने का सुअवसर समझकर उन्होंने कुछ गर्व मिली हुई प्रसन्नता के साथ कहा- ‘तुम लोग जो सुनना चाहते हो, वही सुनावें।’ |