श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी28. नवद्वीप में दिग्विजयी पण्डित
उस समय भी नवद्वीप में गंगादास वैयाकरण, वासुदेव सार्वभौम नैयायिक, महेश्वर, विशरद, नीलाम्बर चक्रवर्ती, अद्वैताचार्य आदि धुरन्धर और नामी-नामी विद्वान् थे। नये पण्डितों में रघुनाथदास, भवानन्द, कमलाकान्त, मुरारीगुप्त, निमाई पण्डित आदि की भी यथेष्ठ ख्याति हो चुकी थी। नगर में चारों ओर दिग्विजयी की ही चर्चा थी। दस-पाँच पण्डित और विद्यार्थी जहाँ भी मिल जाते, दिग्विजयी की ही बात छिड़ जाती। कोई कहता- ‘नवद्वीप को विजय करके चला गया, तो नवद्वीप की नाक कट जायगी।’ कोई कहता- ‘अजी, न्याय वह क्या जाने, न्याय की ऐसी कठिन पंक्तियाँ पूछेंगे कि उसके होश दंग हो जायँगे।’ दूसरा कहता- ‘उसके सामने जायगा कौन? बड़े-बड़े पण्डित तो गद्दी छोड़कर सभाओं में जाना ही पंसद नहीं करते।’ इस प्रकार जिसकी समझ में जो आता वह वैसी ही बात कहता। प्रायः बड़े-बड़े विद्वान् सभाओं में शास्त्रार्थ नहीं करते। कुछ तो पढ़ाने के सिवा शास्त्रार्थ करना जानते ही नहीं, कुछ विद्वान होने पर शास्त्रार्थ कर भी लेते हैं, किन्तु उनमें चालाकी, धूर्तता और बात को उड़ा देने की विद्या नहीं होती, इसलिये चारों ओर घूम-घूमकर दिग्विजय करने वाले वावदूकों से वे घबड़ाते हैं। कुछ अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा के डर से शास्त्रार्थ नहीं करते कि यदि हार गये तो लोगों में बड़ी बदनामी होगी। इसलिये बड़े-बड़े़ गम्भीर विद्वान् ऐसे कामों में उदासीन ही रहते हैं। विद्यार्थियों ने जाकर निमाई पण्डित से भी यह बात कही- ‘काश्मीर से एक दिग्विजयी पण्डित आये हैं। उनके साथ बहुत-से हाथी-घोड़े तथा विद्वान पण्डित भी हैं। उनका कहना है, नदिया के विद्वान या तो हमसे शास्त्रार्थ करें, नहीं तो विजय-पत्र लिखकर दे दें। वैसे शास्त्रार्थ करने के लिये तो बहुत-से पण्डित तैयार हैं, किन्तु सुनते हैं, उन्हें सरस्वती सिद्ध है। शास्त्रार्थ के समय सरस्वती उनके कण्ठ में बैठकर शास्त्रार्थ करती है। इसी से वे सम्पूर्ण भारत को विजय कर आये हैं, सरस्वती के साथ भला कौन शास्त्रार्थ कर सकता है? इसलिये उन्हें बड़ा भारी अभिमान है। वे अभिमान में बार-बार कहते हैं- ‘मुझे शास्त्रार्थ में पराजय करने वाला तो पृथ्वी पर प्रकट ही नहीं हुआ है। इसलिये नदिया के सभी पण्डित डर गये हैं।’ विद्यार्थियों की बातें सुनकर पण्डितप्रवर निमाई ने कहा- ‘चाहे किसी का भी वरदान प्राप्त क्यों न हो, अभिमानी का अभिमान तो अवश्य ही चूर्ण होता है। भगवान का नाम ही मदहारी है, वे अभिमान ही का तो आहार करते हैं। रावण, वेन, नरकासुर, भस्मासुर आदि सभी ने घोर तप करके ब्रह्मा जी तथा शिवजी के बड़े-बड़े वर प्राप्त किये थे। दर्पहारी भगवान ने उनके भी दर्प को चूर्ण कर दिया। अभिमान करने से बड़े-बड़े़ पतित हो जाते हैं, फिर यह दिग्विजयी तो चीज ही क्या है?’ इस प्रकार विद्यार्थियों से कहकर आप गंगा-किनारे चले गये और वहाँ जाकर नित्य की भाँति जल-विहार और शास्त्रार्थ करने लगे। इन्होंने दिग्विजयी के सम्बन्ध में छात्रों से पता लगा लिया कि वह क्या-क्या करता है और एकान्त में गंगाजी पर आता है या नहीं, यदि आता है तो किस घाट पर और किस समय? पता चला कि अमुक घाट पर सन्ध्या-समय दिग्विजयी नित्य आकर बैठता है। निमाई उसी घाट पर अपने विद्यार्थियों के साथ जाने लगे और भी पाठशालाओं के विद्यार्थी कुतूहलवश वहीं आकर शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने लगे। |