श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी28. नवद्वीप में दिग्विजयी पण्डित
पण्डितों का शास्त्रार्थ सुनना उन दिनों राजा या धनिकों का एक आवश्यक मनोरंजन समझा जाता था। जो बोलने-चालने में अत्यन्त ही पटु होते थे, जिन्हें अपनी वक्तृत्व-शक्ति के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी पूर्ण अभिमान होता था, वे सम्पूर्ण देश में दिग्विजय के निमित्त निकलते थे। प्रायः ऐसे पण्डितों को किसी राजा या धनी का आश्रय होता था, उनके साथ बहुत-से और पण्डित, घोडे़, हाथी तथा और भी बहुत-से राजसी ठाट होते थे। वे विद्या के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध केन्द्र-स्थानों में जाते और वहाँ जाकर डंके की चोट के साथ मुनादी कराते कि ‘जिसे अपने पाण्डित्य का अभिमान हो वह हमसे आकर शास्त्रार्थ करे। यदि वह हमें शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा तो हम अपना सब धन छोड़कर लौट जायँगे और वे हमें परास्त न कर सके तो हम समझेंगे हमने यहाँ के सभी विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली। यदि किसी की हमसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न हो तो हमें इस नगर के सभी पण्डित मिलकर अपने हस्ताक्षरों सहित विजय-पत्र लिख दें, हम शास्त्रार्थ किये बिना ही लौट जायँगे।’ उनकी ऐसी मुनादी को सुनकर कहीं के विद्वान तो मिलकर शास्त्रार्थ करते और कहीं के विजय-पत्र भी लिख देते, कहीं-कहीं के विद्वान उपेक्षा करके चुप भी हो जाते। दिग्विजयी अपनी विजय का डंका पीटकर दूसरी जगह चले जाते। धनी-मानी सज्जन ऐसे लोगों का खूब आदर करते थे और उन्हें यथेष्ठ द्रव्य भी भेंट में देते थे। इस प्रकार प्रायः सदा ही बड़े-बड़े शहरों में दिग्विजयी पण्डितों की धूम रहती। चैतन्य देव के ही समय में चार-पाँच दिग्विजयी पण्डितों का उल्लेख मिलता है। आजकल यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, किन्तु फिर भी दिग्विजयी आजकल भी दिग्विजय करते देखे गये हैं। हमने दो दिग्विजयी विद्वानों के दर्शन किये हैं, उनमें यही विशेषता थी कि वे प्रत्येक प्रश्न का उसी समय उत्तर देते थे। एक दिग्विजयी आचार्य को तो काशी जी में एक विद्यार्थी ने परास्त किया था, वह विद्यार्थी हमारे साथ पाठ सुनता था, बस, उसमें यही विशेषता थी कि वह धाराप्रवाह संस्कृत बड़ी उत्तम बोलता था। दिग्विजय के लिये वाक्पटुता की ही अत्यन्त आवश्यकता है। पाण्डित्य की शोभा तब और अब भी वाक्पटुता ही समझी जाती है। ऐसे ही एक काश्मीर के केशव शास्त्री अन्य स्थानों में दिग्विजय करते हुए नवद्वीप में भी विजय करने के लिये आये। उन दिनों नवद्वीप विद्या का और विशेषकर नव्य न्याय का प्रधान केन्द्र समझा जाता था। भारतवर्ष में उसकी सर्वत्र ख्याति थी। इसलिये नवद्वीप को विजय करने पर सम्पूर्ण पूर्वदेश विजित समझा जाता था। |