श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारीप्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
एतस्यामहमल्पबुद्धिविभवोऽप्येकोऽपि कुत्र ध्रुवं ‘यद्यपि मुझ बुद्धिहीन व्यक्ति में एक भी गुण नहीं है तो भी मैं रसिक भक्तों के बीच में अवज्ञा को प्राप्त न हो सकूँगा। मधुर रस के उपासक भक्त तो मीठे के लोलुप होते हैं, वह मिठास किसके द्वारा लाया गया है, इसकी वे कुछ भी परवा नहीं करते। मधु की मक्खी में विद्या नहीं है, उसका उज्ज्वल कुल में जन्म भी नहीं हुआ है, वह नन्हीं-सी मक्खी स्वयं पुरुषार्थ करके मधु बनाने में भी असमर्थ है, उसमें स्वयं कोई गुण भी नहीं। किन्तु वह छोटे-बड़े हजारों पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा मधु लाकर उसे छत्ते में इकट्ठा कर देती है। लोग फूलों का नाम भूलकर उसे मक्खियों का ‘मधु’ कहने लगते हैं। उनके इन अवगुणों के कारण, रसिकजन क्या उस सुन्दर मधु का अनादर कर देते हैं? नहीं, वे उसे आदर के साथ सेवन करते हैं।’ यही विनय इस क्षुद्र दीन-हीन कंगाल लेखक की भी है। इति शम्। श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे मुरारे! हे नाम! नारायण! वासुदेव! श्री हरिबाबा का बाँध |