श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी24. चंचल पण्डित
निमाई उससे मन-ही-मन बहुत स्नेह करते थे, किन्तु ऊपर से सदा उससे छेड़खानी ही करते रहते। जब भी वह मिल जाता, उसे पकड़कर न्याय की फक्कि का पूछने लगते। वह हाथ जोड़कर कहता- ‘बाबा! मुझे माफ करो, मैं तुम्हारा न्याय-फ्याय कुछ नहीं जानता। मैं तो वैष्णव-शास्त्रों का अध्ययन करता हूँ।’ तब आप उससे कहते- ‘अच्छा, वैष्णव की ही परिभाषा करो। बताओ वैष्णव के क्या लक्षण हैं?’ मुकुन्द कहते- ‘भाई, हम हारे तुम जीते। कैसे पिण्ड भी छोड़ोगे? तुमसे मगजपच्ची कौन करे? तुम पर तो सदा शास्त्रार्थ का ही भूत सवार रहता है। हमें इतना समय कहाँ है?’ इस प्रकार कहकर वे जैसे-तैसे इनसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। एक दिन ये गंगा-स्नान करके आ रहे थे, उधर से मुकुन्ददत्त भी गंगा-स्नान करने के निमित्त आ रहे थे, इन्हें दूर से ही आता देख मुकुन्ददत्त जल्दी से दूसरे रास्ते होकर गंगा की ओर जाने लगे। निमाई ने अपने विद्यार्थियों से कहा- ‘देखी, तुमने इस वैष्णव विद्यार्थी की चालाकी? कैसा बच के भागा जा रहा है, मानो मैं उसे देख ही नहीं रहा हूँ। एक विद्यार्थी ने कहा- ‘किसी जरूरी काम से उधर जा रहे होंगे।’ आप जोर से कहने लगे- ‘जरूरी काम कुछ नहीं है। सोचते हैं वैष्णव होकर हम इन अवैष्णव लोगों से व्यर्थ की बातें क्यों करें। इसलिये एक तरफ होकर निकले जा रहे हैं।’ फिर जोरों से मुकुन्ददत्त को सुनाते हुए बोले- ‘अच्छा बेटा, देखते हैं कितने दिन इस तरह हमसे दूर रहोगे। यों मत समझना कि हम ही वैष्णव हैं। एक दिन हम भी वैष्णव होंगे और ऐसे वैष्णव होंगे कि तुम सदा पीछे-पीछे फिरते रहोगे।’ इन बातों को सुनते-सुनते मुकुन्द गंगा की ओर चले गये और ये अपनी पाठशाला में लौट आये। इनके पिता श्रीहट्ट के निवासी थे। नवद्वीप में बहुत-से श्रीहट्ट के विद्यार्थी पढ़ने के लिये आया करते और बहुत-से श्रीहट्टवासी नवद्वीप में रहते ही थे। ये जहाँ भी श्रीहट्ट के विद्यार्थी को देखते वहीं उसकी खिल्ली उड़ाते। श्रीहट्ट की बोली की नकल करते, उनके आचार-विचार की आलोचना करते। लोग कहते- ‘तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम भी तो श्रीहट्ट के ही हो। जहाँ के रहने वाले हो वहीं की खिल्लियाँ उड़ाते हो।’ ये कहते- ‘शर्म तो हमने उतारकर अपने घर की खूँटी पर लटका दी है, तुम झूठ मानो तो हमारे घर जाकर देख आओ।’ सभी सुनते और चुप हो जाते। कोई-कोई राज-कर्मचारियों तक से इनकी उद्दण्डता की शिकायत करते, किन्तु राजकर्मचारी इनके स्वभाव से परिचित थे, ये उन्हें देखकर जोरों से हँस पड़ते। |