श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी24. चंचल पण्डित
किसी पण्डित को देखते ही बड़ी कठिन संस्कृत बोलने लगते हैं। एक साथ ही उससे दस-बीस प्रश्न कर डाले। बेचारा बगल में आसन दबाये चुपचाप भीगी बिल्ली की भाँति बिना कुछ कहे ही गंगा की ओर चला जाता है, इनसे बातें करने की हिम्मत ही नहीं होती। बाजार में भी चौकड़ी मारकर भागते हैं। कूद-कूदकर चलना तो इनका स्वभाव ही था। रास्ते भी बच्चों की तरह कुदककर चलते। किसी वैष्णव को देखते ही उसे घेर लेते और उससे जोर से प्रश्न करते ‘किं तावत् वैष्णवत्वम्’ ‘वैष्णवता किसे कहते हैं?’ कभी पूछते ‘ऊर्ध्वपुण्ड्रेन किं स्यात्’ ‘ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाने से क्या होता है?’ बेचारे वैष्णव हैरान हो जाते और इनसे जैसे-तैसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। वे कहते जाते- ‘घोर कलियुग आ गया। पण्डित भी वैष्णवों की निन्दा करने लगे।’ कोई कहता- ‘अजी इस निमाई को पण्डित कहता ही कौन है, यह तो रसिकशिरोमणि है, उद्दण्डता की सजीव मूर्ति है, इसका भी कोई धर्म-कर्म है?’ कोई कहता- इतना छिछोरपन ठीक नहीं।’ उन्हीं दिनों श्रीअद्वैताचार्य की पाठशाला में चटगाँवनिवासी मुकुन्ददत्त नामक एक विद्यार्थी पढ़ता था। वह परम वैष्णव था। उसके चेहरे से सौम्यता टपकती थी। उसका कण्ठ बड़ा ही मनोहर था। वह अद्वैताचार्य की सभा में पद-संकीर्तन किया करता था और अपने सुमधुर गान से भक्तों के चित्त को आनन्दित किया करता था। |